Black Money : Will it ever be used for people's welfare?
काला धन : क्या कभी जनता की भलाई के लिये उपयोग हो पायेगा ?
काला धन यानि कि किसी गैर कानूनी या फिर कानूनी तरीके से की गयी कमाई जिसे आयकर विभाग से छिपाकर रखा गया हो और जिस पर आयकर जमा ना किया गया हो। विगत कुछ वर्षों से ये दो शब्द भारत के जनमानस में चर्चा का विषय बने हुए हैं। एक स्वामी जी और एक समाज सुधारक ने इस मुद्दे को इतना उठाया कि देश भर की जनता का ध्यान इस पर गया और ये विषय बीते सालों में हुए कुछ आंदोलनों का मुख्य हिस्सा भी बन गया। लगभग सभी राजनितिक दलों ने काला धन रखने वालों को दण्डित करने और विदेशों में जमा काला धन भारत में वापस लाने के चुनावी वायदे किये पर इस वायदे को पूरा किसी ने नहीं किया। आंदोलन करने वाले स्वामी जी का व्यापर खूब अच्छे से चल पड़ा और समाज सुधारक को सक्रिय राजनिति में मत्वपूर्ण पद भी मिल गया। चुनाव जीतने के बाद सब इस विषय के ऐसे नकारने लगे जैसा कि और भी बहुत से चुनावी वायदों के साथ होता आया है। आखिर ऐसी भी क्या बात है इस काले धन में ?
बात बिल्कुल सीधी सी है कि काला धन भ्र्ष्टाचार का ही दूसरा रूप है जिसकी जड़ें हमारी व्यवस्था में इतनी गहरी हैं कि हम उसका वास्तविक अंदाजा भी नहीं लगा सकते। पर फिर भी बहुत कुछ तो प्रत्यक्ष है जिसे हम सब देख कर भी अनदेखा करते हैं। जैसे कि यदि व्यापारियों की बात करें तो लगभग सभी व्यापारी छोटी-मोटी और कभी-कभी बहुत बार बड़ी खरीदी का भी पक्का बिल ग्राहक को नहीं देते। ग्राहक के पक्का बिल माँगने पर ग्राहक को टैक्स के नाम पर लगने वाले और पैसों का भय बताते हैं। कई ग्राहक तो टैक्स के नाम पर लगने वाले इस अतिरिक्त पैसे को बचाने के चक्कर में पक्का बिल लेते ही नहीं। यानि कि सीधे शब्दों में कहें तो व्यापारी टैक्स का पैसा भी ग्राहक से मांगता है और स्वयं अपने लाभांश में से टैक्स नहीं भरना चाहता। कपड़े, बिजली का सामान, आभूषण विक्रेता, इलेक्ट्रॉनिक्स सामान वाले और कई अन्य भी इसी प्रकार ग्राहक को टैक्स के अतिरिक्त पैसे का भय दिखाकर उनको पक्का बिल नहीं देते और टैक्स के पैसे बचाकर अच्छी-खासी कमाई कर लेते हैं। और टैक्स भरते समय भी अकॉउंटेंट के माध्यम से खरीदी-बिक्री के गलत आंकड़े और गलत बैलेंस शीट वगैरह प्रस्तुत करके बहुत कम टैक्स जमा करते हैं। बाद में आयकर विभाग द्वारा छापे की कार्यवाही में पकड़े जाने पर कुछ तो भ्रष्ट आयकर अधिकारियों को पैसे देकर मामले का निपटारा भी कर लेते हैं। और कुछ पर कड़ी कार्यवाही हो जाती है। पर इसमें अकॉउंटेंट को दोष देना गलत होगा क्यों कि वो तो अपने ग्राहक की इच्छा के आगे मजबूर होता है। यदि वो ये काला-पीला करने से मना कर दे तो व्यापारी दूसरे अकॉउंटेंट के पास चले जाते हैं क्यों कि हमारे देश में शिक्षित बेरोजगारों की भी कमी नहीं है।
अब हम यदि सरकारी कर्मचारियों की बात करें तो बिना रिश्वत के उनसे मामूली सा काम करवाना भी बहुत मुश्किल होता है। रिश्वत देना तो अब जैसे हमारे समाज में एक शिष्टाचार बन गया है। एक छोटे से चपरासी से लेकर बाबुओं और बड़े प्राशासनिक अधिकारीयों तक सबके अपने तरीके और अपने रेट होते हैं रिश्वत के। सबसे ज्यादा ऊपरी कमाई तो पुलिस वालों की होती है। फिर पत्रकारों का नंबर आता है। कुछ वर्ष पहले एक आई. ऐ. एस. दंपत्ति के काफी चर्चे थे मीडिया में। यही रिश्वत राजनीतिक दलों और नेताओं को या चुनावी चंदे के रूप में प्रत्यक्ष रूप से भी दी जाती है या फिर चुपचाप भी। बड़े-बड़े पूँजीपति अपने मन के मुताबिक नीतियां बनवाने के लिए या किसी सरकारी सौदे में हिस्सेदारी पाने के लिए या किसी सरकारी संपत्ति को मामूली दाम में खरीदने के लिए नेताओं और दलों को मुँहमांगी रिश्वत देते हैं और बाद में वो सब वसूला जनता की जेब से किया जाता है। रक्षा सौदों में घोटालों के आरोप तो अब एक आम बात हो गए हैं। निजी शिक्षण संस्थान और चिकित्सालय भी इसका एक उदाहरण हैं जिन पर सरकार कोई नियंत्रण नहीं रखती और वो लोगों से मनमानी फीस वसूलते हैं। शिक्षा और चिकित्सा अब एक संगठित लाभकारी उद्योग बन चुके हैं। बीते कुछ वर्षों में कुछ प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में कुछ मासूमों की मौत हुई और किस तरह इन मामलों में लीपा-पोती की गयी, वो सबने देखा। कुछ निजी चिकित्सालयों ने भी अविश्वसनीय बिल देकर सुर्खियाँ बटोरीं। मृत मरीज तक को वेंटीलेटर पर रख कर मोटा बिल बना दिया जाता है। यदि प्राकृतिक और मानव जनित आपदाओं की बात करें तो राहत कार्यों के नाम पर होने वाले गबन तो एक आम बात हैं। शायद इसीलिए हमारे देश में आपदा प्रबंधन पर कोई विशेष ध्यान नहीं देता क्यों कि आपदा तो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। आपदा प्रभावितों को भले ही कुछ ना मिले पर अफसरों से लेकर नेताओं तक सब मालामाल हो जाते हैं।
हफ्ता वसूली, जबरन चंदा वसूली, जुआ-सट्टा, अवैध वसूली जैसे और भी कई तरीकों के बारे में तो सब जानते ही हैं। धार्मिक स्थलों में दान राशि से प्राप्त धन पर भी सबकी नजर गड़ी रहती है। खासकर हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों में राजनितिक दखल बढ़ता ही जा रहा है। हर खास मंदिर और आश्रम से कुछ नेता और सरकारी अधिकारी जुड़े रहते हैं। स्वयंसेवी संगठनों के नाम पर भी बहुत काली-कमाई होती है। वास्तव में कितने संगठन सरकार और अन्य स्त्रोतों से धन लेकर कितनी समाजसेवा कर रहे हैं, इसकी निगरानी करने वाली कोई संस्था नहीं है। भारत में शायद हजारों-लाखों स्वयंसेवी संस्थाएं होंगी पर उन्होंने धरातल पर कितना कार्य किया है ये किसी को नहीं पता। दान जरूर सब माँगते रहते हैं। कभी मनुष्यों तो कभी जानवरों तो कभी पर्यावरण के नाम पर खूब दान लिया जाता है। पर वास्तविकता में कितना धन उस कार्य पर खर्च होता है जिसके लिए वो इकठ्ठा किया गया था? समाजसेवा भी अब एक व्यापार बन चुकी है। और भी कई तरीकों से काला धन हमारी सामाजिक-राजनितिक व्यवस्था में प्रवेश करके उसका अभिन्न अंग बन जाता है।
इस काले धन के कारण ही समाज में आर्थिक विषमता बढ़ती है। सम्पन्न और संपन्न होते जाते हैं और दरिद्र और दरिद्र। इस काले धन के कारण ही राजनितिक दलों से कई बेरोजगार युवा जुड़े रहते हैं जो कि उनके लिए नेताओं के पीछे घूमने वाली भीड़ का भी काम करते हैं। निम्न वर्ग और मध्य वर्ग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कई बार बैंकों से और सूदखोरों से कर्ज लेता हैं। इस सूद की राशि से भी सूदखोर अच्छा-खासा खजाना बना लेते हैं। खासकर गाँवों में तो आभूषण विक्रेताओं के यहाँ गहने गिरवी रखकर कर्ज लेने का चलन तो सामान्य है। ये काला धन ही देश और समाज को लोकतंत्र से पूंजीवादी व्यवस्था की ओर लेकर जा रहा है। नेताओं को रिश्वत देकर सरकारी संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया जाता है और फिर बाद में उसे घाटे में दिखाकर उसका निजीकरण कर दिया जाता है। फिर सस्ते दर पर प्राप्त होने वाली उन्हीं सेवाओं का पूंजीपति मनमाना मूल्य वसूल करते हैं। और वो सरकार से इतने अधिक अधिकार प्राप्त कर लेते हैं कि उनकी मांगें ना माने जाने पर जब चाहे सेवाओं को बाधित कर सकते हैं और उन पर कोई नियम लागू नहीं होता। इस काले धन के कारण ही अब विश्व समुदाय मानवीय समाज से इतर एक ऐसी जंगली व्यवस्था बनता जा रहा जहाँ बड़ा जानवर अपने से छोटे जानवर को खा जाता है। हर कहीं सब में अपना वर्चस्व स्थापित करने की होड़ मची हुई है। मैं बचपन से ही अपने शहर के कुछ जाने-माने लोगों के यहाँ पर एक ऐसे कमरे की कहानी सुनता आया हूँ जिसमे केवल नोट ही नोट भरे रहते हैं। एक बार तो ऐसे ही एक सेठ का नौकर मुझे एक दुकान पर मिला था जो कीड़े मारने की दवा लेने आया था क्यों कि सेठ जी के नोटों की गड्डियों में कीड़े लग गए थे।
कुछ वर्षों बाद शहर में बहुत से नए बैंक खुल गए और कई लोगों ने अपना काला धन बैंकों में जमा करके सफ़ेद कर लिया। पर कुछ लोगों का काला धन तो आज भी उनके सुरक्षित कमरों में ही है, ऐसा मैंने सुना है। आयकर विभाग भी जब छापा मारता है तो ऊपर से नीचे तक सबको उनका हिस्सा देकर बात दबा दी जाती है, इतना काला धन होता है उन कमरों में। ये तो देश के अंदर के हाल हैं तो फिर विदेशों में रखे काले धन की तो बात ही क्या होगी। सच्चाई तो ये है कि सरकार किसी की भी बन जाये पर कोई भी कभी भी ना तो काले धन को लेकर कोई ऐसा कानून बनाएगा कि वो समाज के उत्थान के काम में आये और ना ही कभी विदेशों में जमा काला धन वापस आएगा। बात साफ़ है कि कोयले की दलाली में सभी के हाथ काले हैं। देश की जनता तो फलों की वो फसल है जिसमें से पके हुए फलों को काट लिया जाता है और कच्चे या सड़े हुए फलों की खाद बना दी जाती है। जो पेड़ फल ना दें उन्हें काट दिया जाता है। ये उपभोक्तावादी संस्कृति वास्तव में पूंजीवाद और बाजारवाद का ही एक घिनौना रूप है।
पुनः करों की बात करें तो कई व्यापारी और अकॉउंटेंट सरकार की टैक्स सम्बन्धी गलत नीतियों को टैक्स चोरी के लिए जिम्मेदार मानते हैं। जो भी हो पर दोनों ही सूरतों में ये समाज के लिए अच्छा नहीं है चाहे सरकार की गलत टैक्स नीति हो या कर चोरी। चाणक्य ने कहा था कि शाषन को जनता से कर इस तरह से लेना चाहिये जैसे कि मधुमक्खी फूलों से रस निकालती है क्यों कि उससे फूल मुरझाता नहीं है। यदि शाषन शिक्षा, स्वास्थ्य और यातायात के क्षेत्र में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं पर कुछ नियमों के अंतर्गत नियंत्रण रखकर उचित मूल्य पर जरूरी सेवाएं उपलब्ध करा सके तो आम जनता का शोषण रुक सकता है और अंततः काले धन की उत्पत्ति भी। स्वयंसेवी संस्थानों और सभी धार्मिक स्थलों के आय-व्यय और कार्यों का भी ऑडिट होना चाहिए। सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली को भी इस तरह से सुधारा जा सकता है कि रिश्वत देने की गुंजाईश ही ना बचे। इसके लिए और मजबूत आरटीआई और लोकपाल की जरूरत होगी। सांसद, विधायक और नेताओं को भी आयकर और अन्य सभी कर भरने के दायरे में लाया जाना चाहिए और राजनितिक दलों को मिलने वाले चंदे की भी जाँच होनी चाहिए। सिर्फ अपने मन की बात करने और सुनाने से कुछ नहीं हो सकता। जनता से संवाद स्थापित करके सबके मन की बात भी समझनी होगी।
पर फिर वही बात आ जाती है कि कोयले की दलाली में सबके हाथ काले हैं। काला धन हमारी सामाजिक-राजनितिक व्यवस्था में सिक्के का ही दूसरा पहलू है। पर अब ये एक ऐसा गंभीर रोग बनता जा रहा जिसका समय रहते उपचार बहुत जरूरी है। जितना कम्युनिस्ट साम्यवाद समाज के लिए हानिकारक है, उतना ही पूंजीवाद भी है। आर्थिक विषमता से समाज में अराजकता फैलती है। जितनी ज्यादा संपन्न और दरिद्र वर्ग के बीच की दूरी होगी, उतनी ही अराजकता और अंततः अपराध भी बढ़ेंगे। इतनी विशाल जनसंख्या वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए काला धन और भ्रष्टाचार नींव खोदने वाले कीड़ों की तरह ही घातक है।
हफ्ता वसूली, जबरन चंदा वसूली, जुआ-सट्टा, अवैध वसूली जैसे और भी कई तरीकों के बारे में तो सब जानते ही हैं। धार्मिक स्थलों में दान राशि से प्राप्त धन पर भी सबकी नजर गड़ी रहती है। खासकर हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों में राजनितिक दखल बढ़ता ही जा रहा है। हर खास मंदिर और आश्रम से कुछ नेता और सरकारी अधिकारी जुड़े रहते हैं। स्वयंसेवी संगठनों के नाम पर भी बहुत काली-कमाई होती है। वास्तव में कितने संगठन सरकार और अन्य स्त्रोतों से धन लेकर कितनी समाजसेवा कर रहे हैं, इसकी निगरानी करने वाली कोई संस्था नहीं है। भारत में शायद हजारों-लाखों स्वयंसेवी संस्थाएं होंगी पर उन्होंने धरातल पर कितना कार्य किया है ये किसी को नहीं पता। दान जरूर सब माँगते रहते हैं। कभी मनुष्यों तो कभी जानवरों तो कभी पर्यावरण के नाम पर खूब दान लिया जाता है। पर वास्तविकता में कितना धन उस कार्य पर खर्च होता है जिसके लिए वो इकठ्ठा किया गया था? समाजसेवा भी अब एक व्यापार बन चुकी है। और भी कई तरीकों से काला धन हमारी सामाजिक-राजनितिक व्यवस्था में प्रवेश करके उसका अभिन्न अंग बन जाता है।
इस काले धन के कारण ही समाज में आर्थिक विषमता बढ़ती है। सम्पन्न और संपन्न होते जाते हैं और दरिद्र और दरिद्र। इस काले धन के कारण ही राजनितिक दलों से कई बेरोजगार युवा जुड़े रहते हैं जो कि उनके लिए नेताओं के पीछे घूमने वाली भीड़ का भी काम करते हैं। निम्न वर्ग और मध्य वर्ग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कई बार बैंकों से और सूदखोरों से कर्ज लेता हैं। इस सूद की राशि से भी सूदखोर अच्छा-खासा खजाना बना लेते हैं। खासकर गाँवों में तो आभूषण विक्रेताओं के यहाँ गहने गिरवी रखकर कर्ज लेने का चलन तो सामान्य है। ये काला धन ही देश और समाज को लोकतंत्र से पूंजीवादी व्यवस्था की ओर लेकर जा रहा है। नेताओं को रिश्वत देकर सरकारी संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया जाता है और फिर बाद में उसे घाटे में दिखाकर उसका निजीकरण कर दिया जाता है। फिर सस्ते दर पर प्राप्त होने वाली उन्हीं सेवाओं का पूंजीपति मनमाना मूल्य वसूल करते हैं। और वो सरकार से इतने अधिक अधिकार प्राप्त कर लेते हैं कि उनकी मांगें ना माने जाने पर जब चाहे सेवाओं को बाधित कर सकते हैं और उन पर कोई नियम लागू नहीं होता। इस काले धन के कारण ही अब विश्व समुदाय मानवीय समाज से इतर एक ऐसी जंगली व्यवस्था बनता जा रहा जहाँ बड़ा जानवर अपने से छोटे जानवर को खा जाता है। हर कहीं सब में अपना वर्चस्व स्थापित करने की होड़ मची हुई है। मैं बचपन से ही अपने शहर के कुछ जाने-माने लोगों के यहाँ पर एक ऐसे कमरे की कहानी सुनता आया हूँ जिसमे केवल नोट ही नोट भरे रहते हैं। एक बार तो ऐसे ही एक सेठ का नौकर मुझे एक दुकान पर मिला था जो कीड़े मारने की दवा लेने आया था क्यों कि सेठ जी के नोटों की गड्डियों में कीड़े लग गए थे।
कुछ वर्षों बाद शहर में बहुत से नए बैंक खुल गए और कई लोगों ने अपना काला धन बैंकों में जमा करके सफ़ेद कर लिया। पर कुछ लोगों का काला धन तो आज भी उनके सुरक्षित कमरों में ही है, ऐसा मैंने सुना है। आयकर विभाग भी जब छापा मारता है तो ऊपर से नीचे तक सबको उनका हिस्सा देकर बात दबा दी जाती है, इतना काला धन होता है उन कमरों में। ये तो देश के अंदर के हाल हैं तो फिर विदेशों में रखे काले धन की तो बात ही क्या होगी। सच्चाई तो ये है कि सरकार किसी की भी बन जाये पर कोई भी कभी भी ना तो काले धन को लेकर कोई ऐसा कानून बनाएगा कि वो समाज के उत्थान के काम में आये और ना ही कभी विदेशों में जमा काला धन वापस आएगा। बात साफ़ है कि कोयले की दलाली में सभी के हाथ काले हैं। देश की जनता तो फलों की वो फसल है जिसमें से पके हुए फलों को काट लिया जाता है और कच्चे या सड़े हुए फलों की खाद बना दी जाती है। जो पेड़ फल ना दें उन्हें काट दिया जाता है। ये उपभोक्तावादी संस्कृति वास्तव में पूंजीवाद और बाजारवाद का ही एक घिनौना रूप है।
पुनः करों की बात करें तो कई व्यापारी और अकॉउंटेंट सरकार की टैक्स सम्बन्धी गलत नीतियों को टैक्स चोरी के लिए जिम्मेदार मानते हैं। जो भी हो पर दोनों ही सूरतों में ये समाज के लिए अच्छा नहीं है चाहे सरकार की गलत टैक्स नीति हो या कर चोरी। चाणक्य ने कहा था कि शाषन को जनता से कर इस तरह से लेना चाहिये जैसे कि मधुमक्खी फूलों से रस निकालती है क्यों कि उससे फूल मुरझाता नहीं है। यदि शाषन शिक्षा, स्वास्थ्य और यातायात के क्षेत्र में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं पर कुछ नियमों के अंतर्गत नियंत्रण रखकर उचित मूल्य पर जरूरी सेवाएं उपलब्ध करा सके तो आम जनता का शोषण रुक सकता है और अंततः काले धन की उत्पत्ति भी। स्वयंसेवी संस्थानों और सभी धार्मिक स्थलों के आय-व्यय और कार्यों का भी ऑडिट होना चाहिए। सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली को भी इस तरह से सुधारा जा सकता है कि रिश्वत देने की गुंजाईश ही ना बचे। इसके लिए और मजबूत आरटीआई और लोकपाल की जरूरत होगी। सांसद, विधायक और नेताओं को भी आयकर और अन्य सभी कर भरने के दायरे में लाया जाना चाहिए और राजनितिक दलों को मिलने वाले चंदे की भी जाँच होनी चाहिए। सिर्फ अपने मन की बात करने और सुनाने से कुछ नहीं हो सकता। जनता से संवाद स्थापित करके सबके मन की बात भी समझनी होगी।
पर फिर वही बात आ जाती है कि कोयले की दलाली में सबके हाथ काले हैं। काला धन हमारी सामाजिक-राजनितिक व्यवस्था में सिक्के का ही दूसरा पहलू है। पर अब ये एक ऐसा गंभीर रोग बनता जा रहा जिसका समय रहते उपचार बहुत जरूरी है। जितना कम्युनिस्ट साम्यवाद समाज के लिए हानिकारक है, उतना ही पूंजीवाद भी है। आर्थिक विषमता से समाज में अराजकता फैलती है। जितनी ज्यादा संपन्न और दरिद्र वर्ग के बीच की दूरी होगी, उतनी ही अराजकता और अंततः अपराध भी बढ़ेंगे। इतनी विशाल जनसंख्या वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए काला धन और भ्रष्टाचार नींव खोदने वाले कीड़ों की तरह ही घातक है।
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