Corona virus, India, world & people's mentality.
कोरोना वायरस, भारत, विश्व और लोगों की मानसिकता :-
अब ये समझ नहीं आता कि ये श्रेष्ठ बनने के कौन से तरीके हैं? इस विषय पर बहुत से समझदार लोगों से चर्चा करने पर भी यही निष्कर्ष निकला कि ये सब अंधविश्वास हैं और इसके पीछे लोगों की बिना सोच-विचार के किसी भी बात को मानने की प्रवृत्ति उत्तरदायी है। ऐसा करने वालों की कभी तरक्की तो नहीं होती पर सोच और मानसिकता खराब जरूर हो जाती है। ऐसे लोगों में धीरे-धीरे मानवीयता का नितांत अभाव और अहंकार की वृद्धि होने लगती है। ऐसे ही लोग संकट के समय किसी परिचित की भी सहायता नहीं करते। ऐसे लोग सिर्फ अपने ही जीवन की कद्र करते हैं और अन्य किसी की चिंता बिल्कुल नहीं करते। अभी जब देश कोरोना वायरस जैसी गंभीर समस्या से लड़ रहा है तब अपनी जान पर खेलकर अपना कार्य कर रहे पायलट, डाक्टर और उनके परिजनों से उनके ही पड़ोसियों द्वारा की गयी अभद्रता इन सब बातों की पुष्टि करती है। ऐसे ही लोग किसी के साथ दुर्घटना होने पर वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने की जल्दी में रहते हैं, लेकिन मरते हुए को बचाने का कोई प्रयास नहीं करते। संकट के समय पशु भी ऐसा आचरण नहीं करते। हिंसक जानवर भी जंगल में आग लगने पर या बाढ़ आने पर जान बचाकर भागते हुए दूसरे जानवरों का शिकार नहीं करते। तो क्या सफलता की चाहत में इंसान अब जानवर से भी बदतर हो गया है? यहीं पर बाजारवाद की शक्तियों की योजना कार्य करती है। लोगों के मन में सफलता की चाहत इस तरह भर दी गयी है कि लोग अब नतीजे पर ध्यान देते हैं लेकिन तरीके पर नहीं। जो सफल है बस उसकी बात ही सत्य है और बाकी सब झूठ। मगर वास्तव में यही उनका षड़यंत्र है। वो नहीं चाहते कि हर मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग करके सही और गलत का अंतर समझे और लंबे समय तक कड़ी मेहनत करके सफल हो। यही बाजारवाद की ताकतें चाहती हैं कि उन्हें अपनी अक्ल का इस्तेमाल ना करने वाले टैलेंटेड गुलाम हमेशा मिलते रहें जिनकी योग्यता, मजबूरी और मूर्खता का फायदा उठाकर वो मोटा मुनाफा कमायें और बदले में ये गुलाम महज मामूली से लाभ के लिए हमेशा उनके कृतज्ञ बने रहें। पूंजीवाद और निजीकरण का सारा खेल ऐसे ही चलता है। इसके कारण भारत योग्यता की कमी ना होते हुए भी आज पीछे है और समाज में हो रहे कई अपराधों के पीछे भी यही सोच है। दूसरों का बुरा करके अपना भला करने की ये सोच ही समाज को एकजुट नहीं होने देती। इस कारण ही समाज में एक वर्ग का पूरी व्यवस्था पर नियंत्रण है। जिसके पास पैसा है, उसके पास सबकुछ है- मानने वाले किसी अन्य चीज को नहीं मानते। यही सोच लालच और घृणा को बढ़ावा देती है। कुछ विद्वान ऐसे अंधविश्वासों के पीछे देश विरोधी तत्वों का षडयंत्र मानते हैं। उनका मानना है कि ऐसी आदतें पालने वाले लोगों की सोच इतनी खराब हो जाती है कि वो समाज और देश की रक्षा के लिए कभी एकजुट हो ही नहीं सकते। पता नहीं उनका ये अनुमान कितना सत्य है लेकिन यह बात सत्य है कि जाति और वर्ग विशेष के कई सामाजिक संगठन होने के बाद भी आज भारत एकजुट नहीं है। सब जंगल में विभिन्न जानवरों के अलग-अलग समूह जैसे रहते हैं।
मुझे नहीं लगता कि हम सब लोगों में से किसी ने या अधिकतर ने नहीं सोचा होगा कि इस आधुनिक समय में भी जब विज्ञान इतना उन्नत है, महज एक छोटा सा वायरस जो कि साधारण दृष्टि से दिखाई भी नहीं देता, पूरे विश्व को इतने व्यापक स्तर पर प्रभावित करेगा। भारत समेत कई देशों में कर्फ्यू जैसे हालात हैं। लोगों का घरों से बाहर निकलना और आवागमन पूरी तरह प्रतिबंधित है। पर क्या इन सब उपायों से इस महामारी पर विजय पायी जा सकती है? पूरी तरह तो नहीं पर काफी हद तक। संक्रमण फैलने से रोकने के लिए यह बहुत कारगर है। पर सिर्फ इतने से बात नहीं बनेगी। लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी नहीं तो हम कोरोना वायरस से जीत भी गये तो भविष्य में किसी दूसरी मुसीबत से हार जायेंगे।
वर्तमान समय में लोगों की सोच को प्रभावित करने में बाजारवाद की शक्तियों की महती भूमिका है। इन लोगों के पास विशेषज्ञों की पूरी टीम होती है जो केवल इसी उद्देश्य पर बहुत कड़ी मेहनत करती है कि किस प्रकार लोगों की सोच को इतना बदल दिया जाये कि लोग वही सोचें और करें जो ये चाहते हैं। ऐसा करने के लिए बहुत विचार कर अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाएं तैयार कर उन पर कार्य किया जाता है। इसमें मनुष्य जीवन के सभी क्षेत्रों का ध्यान रखा जाता है। इसमें लोगों के दैनिक जीवन की समान्य बातें भी शामिल हैं।
उदाहरण के तौर पर कहूँ कि लोगों को अधिक से अधिक स्वार्थी होना सिखाया जा रहा है। पिछले कई वर्षों से लोगों में स्वयं पर अतिशय अहंकार और दूसरों को नीचा समझने और दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ गयी है। किसी समय जिन बातों को लोग गंदी आदत या ऐब कहकर बच्चों को डाँटते थे, अब छोटे बच्चों से लेकर बड़े बुजुर्ग तक वही काम बच्चों और महिलाओं की उपस्थिति में भी करते हैं। इनमें दूसरों को देखकर थूकना, खाँसना और खखारना तो काफी पुराना चलन है। कुछ लोगों को को बिना मुँह पर रूमाल रखे दूसरों के पास ही छींकने और खाँसने की आदत है। जरूरी नहीं कि सब ऐसा जानबूझकर करें, पर कुछ लोग करते हैं। लेकिन अब कुछ लोग चोरी छुपे दूसरों की दो पहिया या चार पहिया वाहन की डिक्की, सीट इत्यादि पर भी थूक देते हैं। कुछ महानुभाव एटीएम मशीन के कीबोर्ड पर भी थूक कर चले जाते हैं। कुछ लोगों को किसी के भवन के दरवाजों, दीवार या देहरी पर थूकना पसंद है। कुछ जानबूझकर सार्वजनिक शौचालयों के यूरिनल और वाश बेसिन में गुटका और सुपारी थूकते हैं। कुछ लोग सड़क पर चल रहे वाहन को ओवरटेक करने के ठीक बाद उसके सामने थूकते हैं। ऐसे में थूक के छींटे उड़कर कई बार पीछे वाले वाहन चालक के चेहरे पर लग जाते हैं और झगड़े की भी स्थिति बन जाती है। कई लोगों ने सड़क पर चलते हुए ऐसी घृणित घटनाओं के किस्से सुनाए हैं। ऐसा लगता है जैसे कि स्पर्धा चल रही हो कि कौन कितने अधिक लोगों के वाहन को ओवरटेक करके थूकता है।
पर बात इससे भी आगे बढ़ चुकी है। अब तो दूसरों को देखकर मलमूत्र के अंगों पर हाथ फेरना या खुजाना भी समान्य बात हो गयी है। कुछ लोग बैठे हुए अपने पैरों के तलुए पर हाथ फेरना पसंद करते हैं तो कुछ अपने जूते या चप्पल हिलाना। यहाँ तक कि कुछ सभ्य महिलाएं भी अपने पैरों में पहनी बिछिया को यहाँ-वहाँ घुमाना पसंद करती हैं। कुछ लोग किसी को देखकर नाक खुजाने लगते हैं तो कुछ पैंट का पंजे के पास वाला हिस्सा ठीक करने लगते हैं। कुछ महोदय तो अच्छे से पहने हुए जूते-चप्पल भी जबरदस्ती हाथों से थोड़ा यहाँ-वहाँ घुमा देते हैं। किसी को बैठे हुए अपने घुटनों पर हाथ फेरना पसंद है तो किसी को अपने सर को झटका देकर अपने बाल ठीक करना। कुछ को जूते-चप्पल हल्का सा फर्श पर पटकना पसंद है तो कुछ पैर को विचित्र अंदाज में थोड़ा हिला देते हैं। कुछ लोग किसी से बात करते हुए बिना आवाज के अधोवायु वातावरण में छोड़ देते हैं तो कुछ तेज आवाज के साथ। यदि कोई इसे अभद्रता बताकर टोके तो कहते हैं कि प्राकृतिक आवेग को कौन रोक सकता है। ऐसे कार्य कुछ लोग जानबूझकर भीड़ भरे स्थानों जैसे कि रेल्वे टिकट काउंटर, एटीम इत्यादि पर करना पसंद करते हैं। पर कुछ महापुरुष इन सबसे कहीं आगे भी निकल चुके हैं। बहुत से लोग सार्वजनिक स्थानों जैसे कि रेल्वे, धर्मशाला, प्लेन, कोचिंग सेंटर, कार्यालय इत्यादि जैसे स्थानों पर शौचालयों का प्रयोग करने के बाद जानबूझकर फ्लश नहीं चलाते। वो चाहते हैं कि दूसरे लोगों की नजर उनके मलमूत्र पर पड़े। हद तो ये है कि कई बार ऐसे स्थानों पर व्यवस्थापक एक कागज भी लगवा देते हैं जिस पर लिखा होता है कि -"कृपया शौचालय का प्रयोग करने के बाद फ्लश चला दें"- पर लोग इसके बाद भी नहीं मानते। इसमें भी खासकर पश्चिमी तरीके के बैठकर उपयोग करने वाले शौचालयों में महिलाओं को उन जगहों पर कई बार खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है जहाँ उनके लिए अलग से शौचालय नहीं होते क्यों कि कुछ असामाजिक तत्व उनकी पूरी सीट पर गंदगी फैलाकर चले जाते हैं। उन्हें पता होता है कि महिलाओं को उन शौचालयों का उपयोग उन की सीट पर बैठ कर ही करना होगा। ऐसा नहीं है कि ऐसा करने वाले सब अनपढ़ देहाती लोग हैं। पढ़े-लिखे और संपन्न लोग भी ऐसी कुत्सित कार्य करते हैं।
जिन लोगों को ऊपर वर्णित कार्य अच्छे नहीं लगते वो लोग यही कार्य थोड़े शालीन तरीकों से भी करते हैं, जैसे कि पहचानने से इंकार कर देना। जब कोई परिचित उनसे मिलेगा तो कहेंगे आप कौन हो, मैंने पहचाना नहीं। यहाँ तक कि ये व्यवहार फोन और सोशल मीडिया पर भी होता है। नंबर उनके फोन में सेव होने पर भी पूछते हैं कि आप कौन, आपका नम्बर मेरे मोबाइल में नहीं है। कुछ लोग तो मात्र इसीलिए पहले से सेव नम्बर तक डिलीट कर देते हैं। जो लोग व्यापारी हैं, वो बिना लोगों की आवाजाही की चिंता किये झाड़ू लगाकर धूल उड़ाते रहते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि वो धूल वहाँ से गुजर रहे लोगों की आँखों में जाती है और किसी वाहन चालक की आँखों में जाकर दुर्घटना का कारण भी बन सकती है, और किसी श्वसन रोग से पीड़ित रोगी को तकलीफ देती है। कुछ व्यापारी बंधु तो कचरे का ढेर ही सड़क के बीचोंबीच लगा देते हैं तो कुछ जानबूझकर गुजर रहे लोगों के चेहरे की ऊँचाई तक उड़ा कर कचरा फेंकते हैं। नींबू-मिर्ची की डोरी सड़क पर जानबूझकर उसी जगह फेंकी जाती हैं जहाँ से लोग गुजरते हैं। ग्राहक के हाथ से पैसे लेना पर ग्राहक के हाथ बढ़ान के बाद भी ग्राहक को पैसा और सामान काउंटर पर पटक कर देना बहुत पुराना चलन है जो आज भी कायम है। सामान और पैसे काउंटर पर धीरे से रखने और पटकने का अंतर सब जानते हैं पर सब अनदेखा कर देते हैं व्यर्थ के झगड़े से बचने के लिए। आजकल कुछ लोग ग्राहक को सीधे नोट भी जबरदस्ती मोड़ कर देते हैं। ये अब बहुत से लोगों की आदत बन गई है। कुछ लोग एक प्रसिद्ध संत की तरह अपने बायें पैर के घुटने पर अपने दायें पैर को रखकर, अपने बायें हाथ को अपने दायें पैर के अँगूठे पर रख देते हैं या पैर का तलुआ खुजाने लगते हैं। पर पता नहीं उनमें से कितने लोगों ने उस संत की तरह समाजसेवा की है और उनके पास कौन सी सिद्धि है।
समाज में फैली कुरीतियों का अध्ययन करते समय ये भी पता चला कि कुछ सभ्य मनुष्य भी किसी के घर अतिथि बनकर जाते हैं तो उनकी किसी वस्तु को इरादतन चालाकी से खराब कर देते हैं। मेरे एक मित्र के यहाँ आये एक अतिथि उनका वस्त्रों पर करने वाला महँगा आयरन खराब करके चले गये और मेरे वो मित्र सज्जनतावश कुछ कह भी ना सके। कुछ लोगों को दूसरों की कोई छोटी-मोटी चीज चुराना पसंद है। एक परिचित के नये मँहगे वाहन के कुछ नट किसी ने चुरा लिये तो एक के घर कूलर सुधारने वाला कुछ नट चुराकर ले गया। ऐसी और भी कई विचित्र किस्से सुनने को मिले। अभी कुछ महीनों से एक नयी बात चलन में आयी है। वैसे तो देश में सड़क पर बांयें तरफ चलने का नियम है लेकिन कुछ लोग जानबूझकर दांयें तरफ या बीचोंबीच होकर चलते हैं। ये लोग बार-बार हार्न देने पर भी आसानी से नहीं हटते। ऐसे में इनसे ओवरटेक करने वाले वाहन की सामने से आ रहे वाहन से दुर्घटना होने की बहुत ज्यादा संभावना होती है। कई दुर्घटनाएं इस कारण हो भी चुकी हैं।
ऊपर वर्णित सभी बातें किसी भी दृष्टि से धर्म, नैतिकता, शालीनता और शिष्टाचार के संगत तो बिल्कुल भी नहीं हैं। लेकिन उसके बाद भी जानबूझकर लोग ऐसा क्यों करते हैं? इसके लिए सबके अलग-अलग कारण हैं। कुछ लोग थूकने का कार्य बुरी नजर से बचने के लिए करते हैं क्यों कि उनको किसी का उनकी तरफ देखना अच्छा नहीं लगता। दुकान और वाहनों पर नींबू-मिर्ची लगाने का भी वो यही कारण बताते हैं। पर कुछ लोग दूसरों का अपमान करने के उद्देश्य से ये सब कार्य भी करते हैं। कुछ का मानना है कि ऐसा सोचने से कि अन्य सब लोग उनके पैरों की धूल के बराबर हैं या उनके थूक, मलमूत्र इत्यादि से भी गये बीते हैं, या उनके शरीर की गंदगी से भी गये गुजरे हैं, ऐसा सोचने और करने वाले लोग अन्य लोगों से अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करते हैं कि अन्य लोग चाहे उनसे कितने भी श्रेष्ठ हों पर वे उन्हें कुछ भी नहीं समझते और एक दिन वे उन लोगों से अधिक श्रेष्ठ, संपन्न, स्वस्थ्य और सभी बातों में आगे हो जायेंगे। नोट मोड़कर देने वाले मानते हैं कि ऐसा करने से पैसा उनके पास वापस आ जायेगा। सामान और पैसा पटक कर देने वाले ग्राहक को नीचा और हमेशा उन पर निर्भर मानना चाहते हैं। वैसे दूर से फेंक कर पैसा सिर्फ भिखारियों को दिया जाता है। शायद अमिताभ बच्चन की फिल्म दीवार के इस डायलाग के बाद ये चलन बढ़ गया जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता। दूसरों की वस्तुओं को मिटाने और चुराने वालों का मानना है कि ऐसा करके वो युद्ध में किसी को पराजित करके उनसे संपत्ति जीतने का अहसास करते हैं। सड़क पर ग़लत तरीके से चलने वाले भी यही मानते हैं कि ऐसा करके वो अपने प्रभुत्व का प्रदर्शन करते हैं। उन्हें इससे मतलब नहीं कि उनके कारण किसी आपातकालीन स्थिति में कहीं जा रहे लोग लेट हो जाते हैं। ऐसी हर आधारहीन और व्यर्थ बात को दूसरों को सिखाने वालों का कुतर्क होता है कि -"पहले ये करके तो देखो। करने में क्या जाता है? बिना करे कैसे कह सकते हो कि इससे फायदा नहीं होगा?"- और लोग उनके झाँसे में आ जाते हैं। वे लोग यही कार्य दूसरों को भी सिखाते हैं और इस तरीके से ये गलत व्यवहार समाज में फैलकर कई लोगों की आदत बन जाता है। कुछ वर्ष पहले टीवी पर आने वाले एक बाबाजी ने हाथ की उँगलियों के नाखूनों को आपस में रगड़ने की सलाह दी थी। कहा था कि ऐसा करने से बाल बढ़ते हैं और घने हो जाते हैं। परिणामस्वरूप देश के अनगिनत लोगों ने ये कार्य करना चालू कर दिया। पर जहाँ तक मुझे पता है कि ऐसा करने से किसी को कोई लाभ नहीं हुआ और कुछ महीनों बाद सबने ये बंद कर दिया। लाभ सिर्फ बाबा को हुआ और वो प्रसिद्ध हो गये।
अब ये समझ नहीं आता कि ये श्रेष्ठ बनने के कौन से तरीके हैं? इस विषय पर बहुत से समझदार लोगों से चर्चा करने पर भी यही निष्कर्ष निकला कि ये सब अंधविश्वास हैं और इसके पीछे लोगों की बिना सोच-विचार के किसी भी बात को मानने की प्रवृत्ति उत्तरदायी है। ऐसा करने वालों की कभी तरक्की तो नहीं होती पर सोच और मानसिकता खराब जरूर हो जाती है। ऐसे लोगों में धीरे-धीरे मानवीयता का नितांत अभाव और अहंकार की वृद्धि होने लगती है। ऐसे ही लोग संकट के समय किसी परिचित की भी सहायता नहीं करते। ऐसे लोग सिर्फ अपने ही जीवन की कद्र करते हैं और अन्य किसी की चिंता बिल्कुल नहीं करते। अभी जब देश कोरोना वायरस जैसी गंभीर समस्या से लड़ रहा है तब अपनी जान पर खेलकर अपना कार्य कर रहे पायलट, डाक्टर और उनके परिजनों से उनके ही पड़ोसियों द्वारा की गयी अभद्रता इन सब बातों की पुष्टि करती है। ऐसे ही लोग किसी के साथ दुर्घटना होने पर वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने की जल्दी में रहते हैं, लेकिन मरते हुए को बचाने का कोई प्रयास नहीं करते। संकट के समय पशु भी ऐसा आचरण नहीं करते। हिंसक जानवर भी जंगल में आग लगने पर या बाढ़ आने पर जान बचाकर भागते हुए दूसरे जानवरों का शिकार नहीं करते। तो क्या सफलता की चाहत में इंसान अब जानवर से भी बदतर हो गया है? यहीं पर बाजारवाद की शक्तियों की योजना कार्य करती है। लोगों के मन में सफलता की चाहत इस तरह भर दी गयी है कि लोग अब नतीजे पर ध्यान देते हैं लेकिन तरीके पर नहीं। जो सफल है बस उसकी बात ही सत्य है और बाकी सब झूठ। मगर वास्तव में यही उनका षड़यंत्र है। वो नहीं चाहते कि हर मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग करके सही और गलत का अंतर समझे और लंबे समय तक कड़ी मेहनत करके सफल हो। यही बाजारवाद की ताकतें चाहती हैं कि उन्हें अपनी अक्ल का इस्तेमाल ना करने वाले टैलेंटेड गुलाम हमेशा मिलते रहें जिनकी योग्यता, मजबूरी और मूर्खता का फायदा उठाकर वो मोटा मुनाफा कमायें और बदले में ये गुलाम महज मामूली से लाभ के लिए हमेशा उनके कृतज्ञ बने रहें। पूंजीवाद और निजीकरण का सारा खेल ऐसे ही चलता है। इसके कारण भारत योग्यता की कमी ना होते हुए भी आज पीछे है और समाज में हो रहे कई अपराधों के पीछे भी यही सोच है। दूसरों का बुरा करके अपना भला करने की ये सोच ही समाज को एकजुट नहीं होने देती। इस कारण ही समाज में एक वर्ग का पूरी व्यवस्था पर नियंत्रण है। जिसके पास पैसा है, उसके पास सबकुछ है- मानने वाले किसी अन्य चीज को नहीं मानते। यही सोच लालच और घृणा को बढ़ावा देती है। कुछ विद्वान ऐसे अंधविश्वासों के पीछे देश विरोधी तत्वों का षडयंत्र मानते हैं। उनका मानना है कि ऐसी आदतें पालने वाले लोगों की सोच इतनी खराब हो जाती है कि वो समाज और देश की रक्षा के लिए कभी एकजुट हो ही नहीं सकते। पता नहीं उनका ये अनुमान कितना सत्य है लेकिन यह बात सत्य है कि जाति और वर्ग विशेष के कई सामाजिक संगठन होने के बाद भी आज भारत एकजुट नहीं है। सब जंगल में विभिन्न जानवरों के अलग-अलग समूह जैसे रहते हैं।
जंगल और समाज में यही अंतर होता है कि वहाँ ताकतवर जानवर कमजोर जानवर को खा जाता है जबकि मनुष्य समाज में सबके साथ पारस्परिक सम्मान और शांतिपूर्वक मिल कर रहने में विश्वास करता है। लेकिन समाज पर प्रभुत्व चाहने वाले ही समाज में अंधविश्वास फैलाते हैं। वो यही चाहते हैं कि समाज में कभी सब बराबर ना हो पायें, इसलिए लोगों को स्वयं तरक्की करने के लिए प्रेरित करने की जगह ऐसे अंधविश्वासों के जरिए रातोंरात तरक्की का सपना दिखाकर लोगों को परस्पर द्वेष करना सिखा रहे हैं। सनातन धर्म तो ऐसे सब कार्यों और ऐसी सोच को भी घोर पाप मानता है। सनातन धर्म के अनुसार अभिमान विनाश का मूल है और देहाभिमान महापाप है। संतों के अनुसार जिस शरीर की अंतिम गति मिट्टी में मिल जाना होती है, चाहे उसका दाह संस्कार हो, दफनाया जाये या उसे कोई पशु खा जाये, उसके सुख के लिए पाप करना और उस शरीर पर अभिमान करना भी पाप है। कोई मनोवैज्ञानिक भी ऐसी सोच और कुत्सित कार्यों को सही नहीं कहता। परंतु लोग ना विज्ञान की सुनते हैं और ना ही धर्म की। समाज और देश की भलाई का सारा दायित्व सरकार का नहीं है। लोगों की स्वार्थी सोच का ही राजनीतिक दल फायदा उठाते हैं। अपने पसंदीदा दल और नेताओं के गलत कामों पर लोग चुप रहते हैं। परिणाम भृष्टाचार के रूप में सामने आता है। आज देश के पास इतनी बड़ी जनसंख्या के लायक पर्याप्त शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात और आजीविका के साधन ना होने का यही कारण है। कहने के लिए देश में अंधविश्वासों के विरूद्ध कानून हैं लेकिन उनका पालन नहीं होता। ट्रेनों में खासकर मुंबई लोकल में अक्सर ऐसे बाबाओं के विज्ञापन लगे होते हैं जो महज कुछ घंटों में हर समस्या के समाधान की गारंटी देते हैं। अब तो ऐसे विज्ञापन कुछ धार्मिक चैनलों पर भी आने लगे हैं। कई लोगों का मानना है कि समाज में यही लोग गंदी आदतें फैला रहे हैं, मगर कोई सरकार इन पर कार्यवाही नहीं करती। ऐसे में समाज का दायित्व है कि वो ऐसे ठगों से सावधान रहे। हर वाहन के लिए, हर सार्वजनिक स्थल पर और हर व्यक्ति की निगरानी के लिए एक पुलिस वाला तैनात करना संभव नहीं है और ना ही उचित है। देश और समाज के लिए हर मनुष्य के कुछ कर्तव्य भी होते हैं। यदि लोग सिर्फ अपने अधिकारों की बात करेंगे लेकिन कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे तो देश का हर नागरिक भी यदि धनवान हो जाये और देश में कितने भी संसाधन हों, अव्यवस्था बनी ही रहेगी। संभव है कि कुछ समय बाद विश्व कोरोना वायरस पर विजय पा भी ले मगर फिर कोई दूसरी समस्या आने पर क्या होगा? लोगों की ये गंदी आदतें कोई भी बीमारी फैलाने में सहायक होने के साथ ही उनकी एक अच्छा और सामाजिक मनुष्य होने की क्षमता को भी समाप्त कर देती हैं। समाज भी मनुष्य के शरीर की ही तरह है। जिस तरह शरीर के सभी अंगों में सामंजस्य बने रहने से शरीर स्वस्थ्य बना रहता उसी तरह समाज के सभी वर्गों में भी समन्वय जरूरी है। आज कोरोना वायरस के डर से कानून का पालन करने वाले लोग वास्तविकता में सब सामान्य होने पर कानून का कितना पालन करते हैं और स्वच्छता और सभ्यता का कितना ध्यान रखते हैं? क्या सिर्फ आपदा और मृत्यु के डर से ही हम सभ्य मनुष्य बनेंगे? यह सवाल हम सभी को अपने आप से पूछना है।
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