How to curb economic slowdown ?
आर्थिक मंदी को कैसे नियंत्रित किया जाये ?
इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था में आयी हुई मंदी को लेकर देश में तरह-तरह की चर्चायें हो रही हैं। विपक्ष इसे सरकार की नाकामी के रूप में प्रचारित कर रहा है। बहुत ना-नुकुर करने के बाद सरकार ने स्वीकार किया है कि इस समय अर्थव्यवस्था मंदी का सामना कर रही है और वित्तमंत्री जी ने इससे निपटने के लिए कुछ कदम उठाये हैं। पर अर्थशास्त्री उन्हें अपर्याप्त मानते हैं। आखिर क्या है ये मंदी और इससे देश की अर्थव्यवस्था कैसे प्रभावित होती है? सरल शब्दों में कहें तो जनता के पास धन की कमी ही आर्थिक मंदी है क्योंकि जनता के पास धन के कमी होने से उसकी क्रय शक्ति में कमी आती है जिससे वस्तुओं और सेवाओं का व्यापार कम हो जाता है और अंततः इससे कर संग्रहण में भी कमी आती है जिससे सरकारी खजाने में धन की कमी हो जाती है। अब यहाँ पर प्रश्न ये उठता है कि व्यवस्था में धन की कमी कैसे हो जाती है?
यहाँ पर अर्थशास्त्र के एक बहुत ही साधारण से सिद्धांत पर गौर करना होगा। और वो यह है कि जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में रक्त का महत्व होता है, वैसा ही महत्व समाज में धन का होता है। जैसे शरीर के सभी अंगों को रक्त की आवश्यकता होती है क्योंकि उससे वो पोषण ग्रहण करते हैं, वैसे ही समाज में सभी वर्गों को धन की आवश्यकता होती है अपनी उन्नति करने के लिए। जिस प्रकार शरीर में रक्त का सतत प्रवाह होता रहता है और वो कहीं ज्यादा देर रुकता नहीं है, ठीक उसी प्रकार समाज में भी धन का प्रवाह होते रहना चाहिए। यदि शरीर में रक्त का प्रवाह रुक जाये या धीमा पड़ जाये या बहुत तेज हो जाये या रक्त की कमी हो जाये तो ये शरीर के स्वास्थ्य और अस्तित्व के लिए हानिकारक होता है। ठीक इसी प्रकार समाज में धन के सम्बन्ध में समझना चाहिए। अनादिकाल से ये व्यवस्था चली आ रही कि शाषन जनता को समय-समय पर विभिन्न माध्यमों से धन एवं आर्थिक लाभ प्रदान करता है और फिर कर के रूप में वो धन वापस भी प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार समाज में धन का प्रवाह बना रहता है।
समाज में धन की कमी भ्रष्टाचार से आती है। हमारे समाज का एक वर्ग पूंजीवादी मानसिकता का आदि होकर मुनाफाखोर हो चुका है। लागत को कम से कम करके मुनाफे को अधिक से अधिक रखने की प्रवृत्ति जब नीति की सीमा से भी पर चली जाये तो वो भ्रष्टाचार बन जाती है। देश का अधिकतर औद्योगिक एवं व्यापारी वर्ग इसी प्रवृत्ति का शिकार है। लागत को कम करने के लिए पर्याप्त से भी कम संख्या में कर्मचारी रखकर उनसे कम वेतन पर अधिक काम करवाया जाता है। हमारे देश में बेरोजगारी और गरीबी इतनी अधिक है कि अपना पेट पालने के लिए मजबूरी में कई लोग कम वेतन पर भी काम करने को तैयार रहते हैं। इस प्रकार पूंजीपति दुगुना लाभ तो लागत कम करके ही कमा लेते हैं। इसके बाद वस्तुओं की गुणवत्ता और मात्रा में गड़बड़ करके पुनः लाभ कमाते हैं। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण आज हमें हर जगह देखने को मिल जाते हैं। होटलों में खाने की प्लेट में खाद्य सामग्री के दाम तो बढ़ गए हैं पर मात्रा कम होती जा रही है। पोहा-जलेबी से लेकर दाल फ्राई और सब्जी तक की प्लेट अब छोटी हो गयी हैं। सलाद का अलग से चार्ज लगता है भले ही उसमें केवल प्याज हो। सौ, ढाई सौ, पाँच सौ ग्राम और एक किलो के मानक पैक की जगह अब अस्सी, डेढ़ सौ, चार सौ, नौ सौ और ऐसे ही मनमानी मात्रा के उपभोक्ता वस्तुओं के पैकेट बाजार में बिक रहे हैं।
वस्तुओं की गुणवत्ता इतनी घटा दी गयी है कि ग्राहक को वो वस्तु बार-बार खरीदनी पड़ती है। उदहारण के तौर पर किसी भी ब्रांड के अंडर गारमेंट्स को ले सकते हैं जिनके विज्ञापनों में फ़िल्मी सितारे आते हैं। कुछ वर्ष पहले की तुलना में उनके दाम बहुत बढ़ गए हैं और उनका कपड़ा पतला और कमजोर होता जा रहा है। हाल ये हैं कि सौ रूपये का अंडरवियर और डेढ़ सौ रूपये की बनियान छह महीने भी नहीं चलते जबकि पहले ये लगभग एक साल तो चल ही जाते थे। बात सिर्फ कपड़ों की ही नहीं है। पूंजीवादी वर्ग ने दैनिक उपयोग की हर वस्तु को निशाना बनाया है चाहे वो जूते-चप्पल, इलेक्ट्रॉनिक सामान और खाद्य सामग्री हो या भवन निर्माण सामग्री। जैसे यदि बात मोबइल की ही करें तो पचास हजार रूपये से ऊपर कीमत के मोबाइल में भी ऐसी बैटरी नहीं मिलती कि वो दो दिन भी बिना चार्जिंग के सामान्य उपयोग भी हो सके। लेकिन मोबाइल बाजार में लाने के कुछ समय बाद कम्पनी उसकी कीमत घटाना चालू कर देती है। फिर वही कम्पनी उस मोबाइल की कीमत में उससे बेहतर नया मोबाइल बाजार में ले आती है। इससे उस मोबाइल की रीसेल वैल्यू कम हो जाती है और महज दो साल बाद ही वो आधे से भी कम कीमत में बिकता है। इसमें भी पंद्रह हजार या उससे कम दाम के फोन तो महज एक तिहाई या एक चौथाई कीमत में बिकते हैं। कमोबेश यही स्थिति लगभग सभी जीवनोपयोगी वस्तुओं के साथ है।
यदि बात दो पहिया और चार पहिया वाहनों की करें तो स्थिति इससे भी बदतर है। कारण है बीमा की रकम। सरकार के द्वारा कानून बनाकर वाहनों के बीमा को अनिवार्य बनाने के बाद से जैसे बीमा कंपनियों को मनमानी करने का लायसेंस मिल गया। प्रायः कंपनियां वाहन की लागत का सत्तर प्रतिशत से अधिक कवर नहीं करतीं। उसमें भी काँच और अन्य बहुत से पार्ट्स बीमा के तहत कवर नहीं किये जाते। फिर दुर्घटना होने के बाद दावे की राशि का भी महज पचास प्रतिशत तक ही भुगतान किया जाता है और उसके बाद बीमा के प्रीमियम की रकम बढ़ाकर धीरे-धीरे वो भी ग्राहक से वापस वसूल ली जाती है। किसी नए वाहन की कीमत की लगभग आधे से ज्यादा रकम तो बीमा कंपनियां उस वाहन के मालिक से सोलह साल में वसूल लेती हैं। शायद वाहन उद्योग के भले के लिए ही हमारे देश में किसी वाहन की आयु मात्र सोलह साल निर्धारित की गयी है। उस पर भी विचित्र बात ये है कि हमारे देश में सार्वजानिक परिवहन व्यवस्था के अपर्याप्त से भी कम होने के बाद भी दो पहिया और चार पहिया वाहनों को विलासिता की वस्तुओं की श्रेणी में रखा गया है, जिन पर सरकार अत्यधिक टैक्स वसूल करती है और इसीलिए इनके दाम इतने ज्यादा होते हैं। शायद बहुत ही कम लोग जानते होंगे इसके बारे में कि भारत में कौन-कौन सी वस्तुएं विलासिता की वस्तु की श्रेणी में आती हैं और उन पर कितना टैक्स है। अब सुधार पर होने वाले खर्च की तो बात ही अलग है। स्पेयर पार्ट्स और रिपेयर के नाम पर उपभोक्ता इतना लुटता है कि इस विषय पर एक अलग ही लेख लिखा जा सकता है, फिर चाहे वो वाहन हो या मोबाइल या कोई और वस्तु।
अब यदि बात शिक्षा और चिकित्सा की करें तो पहले भी अपने एक लेख में ये विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ कि किस प्रकार निजी संस्थान सेवाओं के मनमाने मूल्य वसूल रहे हैं और उनकी गतिविधियों पर जाँच और नियंत्रण रखने वाली कोई सरकारी संस्था नहीं है। इसका मूल कारण भ्रष्टाचार ही है क्योंकि ये वर्ग पत्रकारों और नेताओं तक उनका हिस्सा पहुँचा देता है। बाकी लाभ तो टैक्स चोरी करके कमाया जाता है। काले धन पर लिखे अपने लेख में मैं विस्तार से इसका वर्णन कर चुका हूँ। इस प्रकार मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार से एकत्रित ये धन पूंजीपतियों, नेताओं, मीडिया, सरकारी अधिकारियों और व्यापारी वर्ग के पास काले धन के रूप में एकत्र होता जाता है और फिर धीरे से विदेशों में पहुँच जाता है, जहाँ ये लोग उसे और लाभ कमाने के लिए निवेश कर देते हैं। इस प्रकार समाज के साधारण वर्ग का धन धीरे-धीरे संपन्न वर्ग के पास काले धन के रूप में एकत्रित होता जाता है और समाज में वापस नहीं आता। इससे गरीब और गरीब होते जाते हैं और अमीर और अमीर। बल्कि आज के समय में तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और परिवार के अन्य खर्चों को उठाने के बाद तो मध्यमवर्गीय लोगों की भी हालत ख़राब हो जाती है। निजी अस्पतालों में तो इतनी लूटमार मची है कि कई सम्पन्न परिवार भी दरिद्र हो गए हैं परिवार के सदस्यों की किसी गंभीर बीमारी के इलाज के खर्चे में, यदि उन्होंने ने उसका स्वास्थ्य बीमा नहीं कराया तो।
जब पूंजीवादी, उपभोक्तावादी और बाजारवादी संस्कृति ने समाज का ये हाल बना रखा है तो आखिर आर्थिक मंदी से कब तक बचा जा सकता है? जब लोगों की जेब में कुछ खरीदने के लिए पैसा ही नहीं होगा तो फिर कौन सी चीज बिकेगी? कई लोगों का तो ये मानना है कि ये आर्थिक विषमता, गरीबी और बेरोजगारी इन्हीं शक्तियों द्वारा जानबूझकर दूर नहीं की जा रहीं ताकि समाज के एक विशेष वर्ग का प्रभुत्व हमेशा समाज और सत्ता पर बना रहे। अपना पेट और परिवार पालने में व्यस्त जनता इस बात पर कभी ध्यान ना दे पाये कि राजनीतिक, पूंजीपति, मीडिया और प्रशाषनिक वर्ग मिलकर देश की जनता के टैक्स से बने सरकारी खजाने को किस तरह से खाली कर रहे हैं। यदि समझ भी जाये तो वो इन संगठित शक्तियों से लड़ने की स्थिति में कभी ना आ पाए। देश की जनता सिर्फ सोने का अंडा देने वाली मुर्गी की तरह है। यदि देश का हर मनुष्य आत्मनिर्भर बन गया तो फिर श्रेष्ठि वर्ग की जी-हुजूरी कौन करेगा? इन्हें प्रजा चाहिए जिसे उसकी ही जेब काटकर बनायी गयी धनराशि के चंद टुकड़ों से ये उपकृत कर सकें और जो अपनी मजबूरी के कारण कम धनराशि में इनकी सेवा करती रहे।
जब तक इस पूंजीवाद, उपभोक्तावाद और बाजारवाद पर लगाम नहीं लगती, तब तक ऐसी कई और आर्थिक मंदी आती रहेंगी। इसे दूर करने के लिए चाहे हम विदेशों से ऋण लें या खुद धन के देवता कुबेर अपना पूरा खजाना हमें दे दें, पर यदि ऐसे ही चलता रहा तो स्थिति समय बीतने साथ और भी बदतर होती जाएगी। लालच का पेट कभी नहीं भरता और हमारी धरती पर इतने संसाधन हैं कि जरूरतें सबकी पूरी हो सकती हैं पर लालच किसी का भी नहीं। आर्थिक विषमता समाज में आपसी वैमनस्य और बहुत से अपराधों को जन्म देती है। एक स्वस्थ्य समाज के लिए जरूरी है कि उसमें धन का प्रवाह और वितरण संतुलित रहे। देश के संसाधनों पर समाज के सभी वर्गों का सामान अधिकार है और उनकी रक्षा करने का दायित्व भी सभी पर सामान रूप से है। जब तक भ्रष्टाचार, काले धन और मुनाफाखोरी पर लगाम नहीं लगती, तब तक आर्थिक मंदी का स्थाई समाधान करना संभव नहीं है। और यदि ऐसे ही चलता रहा तो कुछ वर्षों बाद ऐसी भयंकर आर्थिक मंदी आएगी कि समाज में हिंसा और अराजकता फ़ैल जाएगी और जनता और शाषन आमने-सामने लड़ने की मुद्रा में होंगे, जैसा कि अभी कुछ देशों में हो रहा है। वर्तमान समय में किसी देश की सुद्रढ़ अर्थव्यवस्था और उसके देश के लिए समर्पित आत्मनिर्भर नागरिक ही उसकी असली ताकत हैं। इसलिए आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं को जड़ से मिटाना बहुत जरूरी है।
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