Hindutva, Nationalism, Development & BJP losing state after state.

हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, विकास और राज्य पर राज्य हारती भाजपा

कुछ साल पहले जब कांग्रेसनीत यूपीए के शाषनकाल में अर्थव्यवस्था, महँगाई, बेरोजगारी, राष्ट्रीय सुरक्षा और अन्य कई मुद्दों पर जनता में निराशा का दौर था तब नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी की तरफ से जनता के सामने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में अच्छे दिन लाने के सपने दिखाकर सत्ता में आये। पर उनसे बहुत ज्यादा उम्मीदें लगाने वाली जनता को उनके कार्यकाल के पहले ही वर्ष में उनसे निराशा होने लगी। फिर भी नरेंद्र मोदी जनता में लोकप्रिय बने रहे और उनके नेतृत्व में भाजपा ने कई राज्यों के चुनाव जीते। हालांकि कुछ राज्यों जैसे कि दिल्ली और बिहार में उनका जादू नहीं चला। सबका साथ और सबका विकास के नाम पर वोट माँगने के बाद केंद्र की भाजपा सरकार ने विकास के नाम पर कुछ ख़ास किया नहीं। अर्थव्यवस्था, महँगाई और बेरोजगारी की स्थिति सुधारने के लिए सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाये। इस पर भी अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने के लिए छद्म धर्मनिरपेक्षता की नीति अपनाने से हिंदुत्व के नाम पर भाजपा को वोट देने वाला अधिकतर हिन्दू वोटर नाराज हो गया। भाजपा की हर चुनाव में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को भुनाने की नीति काम नहीं आयी।कई राज्यों में जनता स्थानीय मुद्दों पर भाजपा सरकार की नीतियों और काम से अच्छी-खासी नाराज थी। 

खासकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरयाणा और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में लम्बे समय से लोग तत्कालीन भाजपा सरकार के मंत्रियों की कार्यप्रणाली की शिकायत भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से कर रहे थे। पर मोदी जी के नेतृत्व  में अतिआत्मविश्वास से भरी भाजपा ने जमीनी हकीकत को नकार दिया। नतीजतन इन सभी राज्यों में भाजपा की हार हुई। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने निस्संदेह बहुत काम किया पर वो जनता की अपेक्षाओं से कम था। बेरोजगारी मध्य प्रदेश में एक बड़ा मुद्दा थी। स्कूल और कॉलेजों में शिक्षकों के हजारों पद खाली रहने के बाद भी उन पर भर्ती नहीं की गयी। शिक्षकों के लिए अनावश्यक रूप से बीएड-डीएड आदि की अनिवार्यता कर दी गयी। इससे प्राइवेट कॉलेजों ने तो फीस के नाम पर बेरोजगारों से मोटा मुनाफा कमा लिया मगर इसके बाद भी हजारों पदों पर लोगों को नियुक्ति नहीं की गई और अभ्यर्थी ओवरएज हो गए। सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए। शिक्षकों के मन में भय बैठ गया कि सरकार योजनाबद्ध तरीके से शिक्षा को निजीकरण की ओर ले जा रही है। निजी शिक्षा संस्थानों में फीस और शिक्षकों के वेतन के नियमन के लिए भी सरकार ने कुछ नहीं किया। अन्य विभागों की भर्तियों में गड़बड़ी के आरोप भी सरकार पर लगे। एक समय व्यापम घोटाले का जिक्र पूरी मीडिया पर छाया हुआ था। मेडीकल कॉलेजों में हुई भर्ती की परीक्षा में हुए घोटाले के उजागर होने के बाद संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई सत्तर से अधिक मौतों ने जनता में पार्टी की छवि को ख़राब कर दिया। यदि बात मोदी जी की लोकप्रियता की ना होती तो भाजपा को विधानसभा चुनाव में उतनी सीटें भी ना मिलती जितनी की मिल गयीं। यदि लोगों की मानें तो मुख्यमंत्री जी के एक घनिष्ठ मित्र की कम्पनी द्वारा प्रदेश में बनायी गयी सड़कें कुछ महीनों बाद ही जर्जर हो गयीं।    

लगभग यही स्थिति भाजपा शाषित सभी राज्यों में रही। जिस उत्तर प्रदेश में योगी जी के कुशल प्रशासन को भाजपा हर चुनाव में भुनाने की कोशिश करती है वहाँ भी उनसठ हजार पदों पर कोर्ट के आदेश के बाद भी शिक्षकों की भर्ती ना होने से जनता नाराज है। कानून व्यवस्था की बात करें तो सिर्फ उत्तर प्रदेश को छोड़कर बाकी सभी भाजपा शाषित राज्यों में इस मुद्दे पर पार्टी की हमेशा किरकिरी हुई। जाट आंदोलन के दौरान मुरथल में तथाकथित आंदोलनकारियों  द्वारा महिलाओं पर हुए जघन्य अत्याचार करने वालों को सजा दिलाने में केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार नाकाम रही। बल्कि पुलिस द्वारा पीड़ितों और गवाहों को डरा-धमकाकर पूरे मामले को दबाने के आरोप भाजपा पर लगे। भाजपा नेताओं की नितांत अमानवीयता का ये सबसे बड़ा उदाहरण है। इसी तरह छत्तीसगढ़ में इतने वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद और फिर केंद्र में भी सत्ता में आने के बाद नक्सली समस्या को सुलझाने के लिए कोई ठोस कार्य ना करना भी भाजपा की प्रशाषनिक अक्षमता के रूप में माना गया। भाजपा विरोधी पार्टियों ने इन सभी मुद्दों को चुनावों में जोर-शोर से उठाया।  

केंद्र और राज्यों में भाजपा के अभी तक के शासन का अवलोकन करने से ये स्पष्ट समझ में आता है कि रोजगार, अर्थव्यवस्था, कानून व्यवस्था और विकास के लिए भाजपा के पास या तो कोई ठोस योजना नहीं है या फिर ये जानबूझकर कोई कार्य करना नहीं चाहते। जनता को केवल हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर उकसा कर भाजपा अपना वोट बैंक सुरक्षित बनाये रखती है और चुनाव जीतने के बाद हिंदुत्व के नाम पर वोट देने वाले हिंदुओं की उपेक्षा करके धर्मनिरपेक्षता का दिखावा करती है। उसके बाद संस्थानों का निजीकरण और पकौड़ा बेचने जैसे बयानों से भाजपा को वोट देने वाले लोग अपमानित महसूस करते हैं। हिंदुओं की नाराजगी की पराकाष्ठा के बाद भाजपा ने जम्मू और कश्मीर, राम मंदिर और अवैध घुसपैठियों को बाहर करने के लिए कुछ विशेष कदम उठाए हैं। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार इस बात का प्रमाण है कि जनता के लिए हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय मुद्द के साथ ही स्थानीय मुद्दों का भी बहुत महत्व है। मुरथल में अत्याचार का शिकार हुए अधिकतर परिवार दिल्ली के ही थे। आम आदमी पार्ट की सरकार द्वारा भी पांच साल में कोई खास काम ना करने के बाद भी उनकी जीत जनता में भाजपा के प्रति लोगों के गुस्से का प्रमाण है। 

दिल्ली चुनावों के परिणाम से ये संदेश स्पष्ट है कि सिर्फ मोदी, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर भाजपा हर चुनाव नहीं जीत सकती। जनता की पहली जरूरत अपना परिवार पालने के लिए आर्थिक सुधार हैं। बेरोजगारी, मंहगाई और अर्थव्यवस्था के मुद्दों पर जनता का भाजपा से भरोसा उठ गया है। हर राज्य में जनता मुख्यमंत्री का चेहरा चाहती है। मोदी जी के नाम पर चुनाव जीत कर किसी को भी मुख्यमंत्री बनाने की रणनीति अब नहीं चलेगी। मोदी जी के नाम पर कई ऐसे लोग भी चुनाव जीत गये हैं जो अपने दम पर कोई चुनाव नहीं जीत सकते। शाहीन बाग के नाम पर जनता की सहानुभूति बटोरने का दांव भी काम नहीं आया। जनता समस्याओं का समाधान चाहती है ना कि उनके नाम पर राजनीति। यदि स्थितियां ऐसी ही रहीं तो आने वाले दस या बीस वर्षों बाद देश में बहुत ही अराजकता का माहौल होगा। भाजपा को हराकर चुनाव जीतने वाली पार्टियों ने भी मंहगाई, अर्थव्यवस्था और रोजगार के मुद्दों पर कोई ठोस कार्य नहीं किया है। सब देश को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर निजीकरण की ओर ले जा रहे हैं। रेल्वे और बैंकों में भी हजारों पद खाली हैं लेकिन उनके भी निजीकरण की चर्चा जोरों पर है। सरकारी तंत्र को सुधारने और भृष्टाचार दूर करने की कोई कोशिश भी नहीं करना चाहता। एकमात्र निजीकरण ही जैसे हर समस्या का समाधान है। ऐसे में देश पूंजीपतियों का आर्थिक गुलाम हो जायेगा। शिक्षा, स्वास्थय और यातायात जैसी बुनियादी सुविधाएं जनता का अधिकार और सरकार का कर्तव्य हैं। पर वर्तमान समय में नेताओं की सोच बिना इन जिम्मेदारियों को निभाये शासन करने की है। अपना वेतन मनमाने तरीके से बढ़ाने वाले नेता कर्मचारियों को वेतन नहीं देना चाहते और जनता को निजी संस्थानों के भरोसे छोड़ देना चाहते हैं जिनकी प्राथमिकता केवल लाभ कमाना है। 

निजी संस्थानों के कर्मचारियों की नौकरी चले जाने पर आत्महत्या करने के कई प्रकरण हो चुके हैं। लेकिन जनता को धर्म, जाति, आरक्षण, क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद के नाम पर उकसा कर चुनाव जीतने वाले भारतीय राजनीतिज्ञों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पर समाज के विभिन्न वर्गों में एक-दूसरे के प्रति विद्वष जरूर फैलता जा रहा है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कुछ सालों बाद भारत में भी जनता की जेब खाली हो जायेगी और सरकार और देश में घोर अराजकता का माहौल होगा जैसा कि अभी कुछ देशों में है। अवैध घुसपैठिये और नक्सली तो कानून व्यवस्था की स्थिति और बिगाड़ देंगे। मोदी जी के बाद दो सीटों से अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाली भाजपा वापस दो सीटों पर ही आ जायेगी। ऐसी स्थिति में यही लगता है कि भारत और भारत की जनता के अच्छे दिन कभी नहीं आने वाले। 

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