Unemployment, Population and New Education Policy
बेरोजगारी, जनसंख्या और नयी शिक्षा नीति
इस वर्ष प्रंधानमत्री नरेंद्र मोदी जी ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए एक नयी शिक्षा नीति प्रस्तावित की। उसमें कुछ बिंदु तो निस्संदेह स्वागत योग्य हैं पर तब भी वर्तमान परिदृश्य के अनुसार बढ़ती बेरोजगारी और युवाओं की समस्याओं के समाधान के लिए उसमे अपेक्षित योजनाएं नहीं हैं। हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति में इतनी कमियाँ हैं कि छात्र आत्मनिर्भर भले ही ना हो पाएं परन्तु नौकरी ना मिलने पर निराशा और अवसाद से ग्रसित अवश्य हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में बहुत से युवाओं का जीवन और समाज से मोहभंग हो जाता है और वो गलत रास्ते पर चले जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में पढ़ाई और नौकरी के तनाव के कारण आत्महत्या करने वाले युवाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। ये दुःखद है कि देश को स्वतंत्रता मिलने के कई वर्षों बाद भी राजनीतिक दलों ने अपने निहित उद्देश्यों के चलते इतने महत्वपूर्ण विषय की अनदेखी की। ऐसी स्थिति में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की नयी शिक्षा नीति एक सराहनीय प्रयास है, पर अभी भी इसमें बहुत सुधारों की आवश्यकता है। इस लेख में नयी शिक्षा नीति के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं का मूल्यांकन किया गया है और उनमें अपेक्षित सुधारों के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं।
नयी शिक्षा नीति के अनुसार छात्रों को तीन वर्ष की आयु से ही विद्यालय लाना एक उचित निर्णय है परन्तु अभी भी बारह वर्षों की स्कूली शिक्षा छात्रों पर एक मानसिक प्रताड़ना की तरह ही है। तीन वर्ष की आयु में विद्यालय जाने वाले छात्र आठ वर्ष की आयु में आने तक अक्षर ज्ञान और भाषा के सामान्य प्रयोग के साथ ही सामान्य गणित जैसे कि गिनती आदि समझने लगते हैं। प्रायः दस वर्ष की आयु अर्थात पाँचवी कक्षा में आने तक अधिकतर छात्र जोड़-घटाना, गुणा-भाग, लघुत्तम-महत्तम और बीस तक पहाड़े भी सीख जाते हैं। चौदह वर्ष की आयु अर्थात आठवीं कक्षा तक बीजगणित, सामान्य भूगोल, विज्ञान, नागरिक शास्त्र और भाषा के व्याकरण का पर्याप्त ज्ञान भी अधिकतर छात्रों को प्राप्त हो जाता है। सोलह वर्ष की आयु अर्थात दसवीं कक्षा में पहुँचने तक अधिकतर प्रतियोगी परीक्षाओं में उपयोगी और सामान्य जीवन में काम आने लायक शिक्षा अधिकतर छात्रों को मिल जाती है। इसके बाद ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा की पढ़ाई वास्तव में छात्रों पर एक अनावश्यक भार के समान ही है जिसे स्कूली शिक्षा में ना होकर कॉलेज की शिक्षा में होना चाहिये।
नयी शिक्षा नीति इस विषय पर निराश करती है। बारह वर्षों की लंबी विद्यालयीन शिक्षा के बाद तीन या चार वर्षों की स्नातक की पढ़ाई और उसके बाद दो या तीन वर्षों की स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने तक छात्र प्रायः तेईस-चौबीस वर्ष के युवा हो जाते हैं। इस आयु तक अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों को आर्थिक रूप से सुरक्षित और विवाहित देखना चाहते हैं। यहाँ विशेषकर लड़कियों के माता-पिता अधिक चिंतित हो जाते हैं। इस समय लड़कों पर भी माता-पिता के आर्थिक आश्रय से मुक्त होकर अपनी स्वयं के जीवन-निर्वाह के लिये धन कमाने का दबाव बहुत अधिक होता है। प्रायः उनकी तुलना दूसरों के बच्चों से की जाती है। ऐसी स्थिति में नौकरी आदि में अपेक्षित सफलता ना मिलने पर उन्हें पारिवारिक और सामाजिक उपहास का भी सामना करना पड़ता है। अधिकतर मध्यम और निम्न वर्गीय परिवारों का इतना धन बच्चों की पढ़ाई में खर्च हो जाता है कि पढ़ाई पूरी होने के बाद यदि युवाओं को सही नौकरी नहीं मिलती तो उनके परिवार के पास उनकी आजीविका का कोई दूसरा प्रबंध करने जैसे कि कोई दुकान खोलना आदि के लिये धन नहीं होता। ऐसी स्थिति में अपने आप को आर्थिक रूप से असुरक्षित जानकर बहुत से युवा घोर निराशा और अवसाद से ग्रस्त हो जाते हैं और कुछ तो आत्महत्या भी कर लेते हैं। आजीविका का कोई साधन ना मिलने पर समय बीतने के साथ उनकी कुंठा बढ़ती जाती है और कुछ युवा अपराध और असामाजिक कार्यों में भी लिप्त हो जाते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली छात्रों का आत्मविश्वास बढ़ाकर उन्हें स्वाबलंबी बनाने की जगह मात्र पढ़ा-लिखा नागरिक ही बना रही है जो अपनी आजीविका के लिये सिर्फ और सिर्फ नौकरी पर निर्भर हैं। इस पर भी यदि पीएचडी के चार साल और जोड़ दें तो छात्र पढ़ाई पूरी करते-करते अट्ठाईस वर्ष के हो जाते हैं। दुःखद है कि इतना पढ़ने के बाद भी बहुत से छात्रों को उचित कार्य नहीं मिलता। इसीलिये आज हमारे देश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या भी बहुत अधिक है। ऐसी स्थिति में युवाओं का असफल अधेड़ के रूप में उपहास होता है और उनका आत्मविश्वास पूरी तरह से टूट जाता है। मनुष्य के जीवन में पंद्रह वर्ष से लेकर चालीस वर्ष की आयु का बहुत महत्व है। यदि कोई व्यक्ति अधिकतम पैंतीस वर्ष की आयु तक आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर नहीं हो पाता तो उसे आगे बहुत कष्ट होते हैं और भविष्य में उसके लिये सुखद जीवन की संभावना बहुत कम हो जाती है। तिस पर भी अधिक आयु में विवाह होने पर गृहस्थ जीवन भी प्रायः सुखी नहीं होता और दंपत्ति को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। फिर ऐसे युगल अपने बच्चों के लिये भी कुछ विशेष नहीं कर पाते और प्रायः उनको जीवन भर अभाव का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थितियों में उनका पारिवारिक जीवन अत्यंत तनावपूर्ण हो जाता है। अतः स्कूली शिक्षा को बारह वर्ष से घटाकर दस वर्ष का किया जाना ही उचित है।
नयी शिक्षा नीति में दूसरी कमी विद्यालय और महाविद्यालय में पढ़ाये जाने वाले सिलेबस को लेकर है। स्कूली शिक्षा से ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा को समाप्त करने के साथ ही उनके अनावश्यक सिलेबस को छोड़कर मात्र आवश्यक सिलेबस में से कुछ को दसवीं तक की कक्षा और कुछ को कॉलेज की पढ़ाई में शामिल किया जाना चाहिये। कॉलेज और स्कूल के सिलेबस में बहुत सी ऐसी अनावश्यक शिक्षा है जिसका कि पढ़ाई पूरी होने के बाद मनुष्य के व्यवहारिक जीवन में कोई उपयोग नहीं है। इसमें भी विशेषकर गणित विषय लेकर पढ़ने वाले छात्र सबसे अधिक परेशान रहते हैं क्योंकि बीएससी और एमएससी गणित में पढ़ाई जाने वाला अधिकतर सिलेबस बहुत कठिन होता है और उसका व्यवहारिक जीवन में कोई भी उपयोग नहीं है। यदि कोई छात्र वैज्ञानिक बनना चाहता हो या गणित के क्षेत्र में शोध या विशेष कार्य करना चाहता हो, तब ही ऐसा सिलेबस ठीक है अन्यथा यह मात्र समय और धन को व्यर्थ करना है। गणित से पढ़ने वालों के साथ एक समस्या यह भी है कि यदि उन्हें कोई नौकरी ना मिले तो शिक्षण कार्य के अतिरिक्त आजीविका कमाने का उनके पास और कोई विकल्प नहीं होता क्योंकि गणित के सिलेबस में ऐसा कुछ नहीं होता जो इस कार्य में सहायता कर सके। लगभग यही स्थिति जीवविज्ञान विषय से पढ़ने वालों की होती है। यदि जीवविज्ञान विषय से बारहवीं करने वाले छात्र चिकित्सक नहीं बन पाते तो इस विषय से महाविद्यालय की पढ़ाई करने के बाद उनके पास किसी नौकरी में आजीविका के अवसर गणित विषय वालों से भी कम होते हैं। फार्मेसी की पढ़ाई सबके बजट में नहीं आती और नर्सिंग में अपेक्षा और आवश्यकता से बहुत कम धन प्राप्त होता है। निजी शिक्षण संस्थाओं की तरह अधिकतर निजी चिकित्सालय भी कर्मचारियों को उचित पारिश्रमिक नहीं देते। यहाँ मात्र कॉमर्स विषय से पढ़ाई करने वाले छात्र ही कुछ अच्छी स्थिति में होते हैं। वाणिज्य संकाय में पढ़ाये जाने वाले प्रायः सभी विषयों का व्यवहारिक जीवन में बहुत उपयोग है क्योंकि वो वित्त के आदान-प्रदान से संबंधित हैं। अतः उचित नौकरी ना मिलने पर भी कॉमर्स से पढ़ने वाले युवा अकॉउंटैंसी और टैक्सेशन संबंधित कार्य करके आजीविका कमा लेते हैं। साथ ही शैक्षणिक कार्य का विकल्प भी उनके पास रहता है। परन्तु वाणिज्य विषय पढ़ने वालों में भी चार्टर्ड अकाउंटेंट बनने के लिए पर्याप्त धन सभी के पास नहीं होता।
अब यदि इंजीनियरिंग की बात करें तो देश में लाखों इंजीनियर बेरोजगार हैं और उनमें से अधिकतर छोटे-मोटे काम करके आजीविका कमा रहे हैं। अभियांत्रिकी की शिक्षा बड़े लाभ का व्यवसाय बन चुकी है और देश में पान की दुकान की तरह इंजीनियरिंग कॉलेज खुल चुके हैं जिनसे हर साल लाखों छात्र मोटी फीस देकर अपनी पढ़ाई पूरी करके निकलते हैं और फिर उपयुक्त कार्य ना मिलने पर स्वयं को ठगा हुआ अनुभव करते हैं। लाखों रुपये खर्च करके इंजीनियर बनने के बाद मात्र पाँच हजार रूपये महीने जैसे तुच्छ पारिश्रमिक पर निजी विद्यालय और महाविद्यालय उन्हें शिक्षक के पद पर रखते हैं और उनके साथ चपरासियों जैसा व्यवहार किया जाता है। निजी कंपनियों में काम करने वाले नये कर्मचारियों की भी यही स्थिति होती है। जब तक वो सीनियर नहीं हो जाते, तब तक नाममात्र के वेतन पर उनसे बहुत अधिक काम कराया जाता है। मात्र धन लाभ के उद्देश्य के लिये काम करने वाले निजी संस्थानों में सुरक्षित भविष्य जैसी कोई बात नहीं होती। नौकरी जाने पर आत्महत्या करने की घटनायें पहले से बढ़ गयी हैं। आर्थिक मंदी आने पर निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की सबसे ज्यादा दुर्दशा होती है। लगभग यही स्थिति मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाले छात्रों की है। इस समय देश में लाखों लोग युवाओं के पास इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की उपाधि है जो उनके किसी काम की नहीं। उनके अभिवावकों के पैसों से कॉलेज चलाने वालों ने संपत्ति बना ली और वे छात्र बेकार हो गये। उनकी पढ़ाई उनका स्वयं का उद्यम स्थापित करने में उनकी कोई सहायता नहीं करती। ऐसे में अभियांत्रिकी और प्रबंधन की पढ़ाई पर लाखों रूपये खर्च करने से उचित तो यही है कि उतना धन युवा अपना व्यवसाय स्थापित करने में उपयोग करें। पर इससे सरकार सिलेबस में सुधार करने की अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। आज स्थिति यह है कि स्कूल-कॉलेज से ज्यादा अच्छा ज्ञान इंटरनेट पर फ्री में उपलब्ध हो जाता है। यहाँ एक और समस्या निजी कंपनियों के लालच की है। अपनी लागत कम करने के लिये वे नये कर्मचारियों को प्रशिक्षण नहीं देना चाहते और सीधे तीन वर्ष या अधिक का अनुभव माँगते हैं। ऐसी स्थिति में पढ़ाई पूरी करके निकले युवा निराश हो जाते हैं। कुछ युवा नकली अनुभव प्रमाण पत्र बनवाकर नौकरी पा भी लेते हैं पर अब यह भी बहुत कठिन हो गया है क्यों कि कंपनियों ने अनुभव प्रमाण पत्र के साथ और भी प्रपत्रों की जाँच आरंभ कर दी है। झूठे अनुभव प्रमाण पत्रों के आधार पर नौकरी पाने के बाद सच्चाई खुलने पर पूरा कैरियर खराब होने का खतरा तो बना ही रहता है। ऐसी स्थिति में अभियांत्रिकी और प्रबंधन की पढ़ाई पर लाखों रूपये व्यय करना व्यर्थ है और इनमें पढ़ाये जाने वाले सिलेबस को सुधारा जाना अपरिहार्य हो जाता है।
अभियांत्रिकी और प्रबंधन में ऐसा किया जा सकता है कि उनके सिलेबस में परिवर्तन करके छात्रों को दर्जन भर विषयों का शुरुआती और अधूरा ज्ञान प्रदान करने के स्थान पर मात्र चार विषयों का पूरा ज्ञान प्रदान किया जाये। साथ ही पढ़ाई के अंतिम एक या दो वर्ष किसी प्रतिष्ठित और विश्वसनीय संस्थान में उनको प्रशिक्षण और वास्तविक कार्य करने का अवसर मिले, जिसका अनुभव प्रमाण पत्र भी उनको प्रदान किया जाये। इस प्रकार पढ़ाई पूरी करने के साथ ही छात्रों के पास एक या दो वर्ष का अनुभव प्रमाण पत्र होगा। वर्तमान परिदृश्य यह है कि इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों से ज्यादा स्वरोजगार के अवसर आई टी आई से पढ़ने वाले छात्रों के पास रहते हैं। इसमें यदि टू-व्हीलर और फोर-व्हीलर रिपेयरिंग, कंप्यूटर एवं मोबाइल रिपेयरिंग, डेंटिंग-पेंटिंग, इलेक्ट्रिक-वर्क, भवन-निर्माण, कचरा-प्रबंधन आदि को भी सिखाया जाये और इन्हें आर्थिक रूप से विपन्न लोगों को कम फीस पर उपलब्ध कराया जाये तो बहुत से लोगों को आजीविका मिल जायेगी। सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट एक ऐसा कार्य है जो आने वाले समय में भारत सहित पूरे विश्व की अपरिहार्य आवश्यकता बनने वाला है और इस क्षेत्र में रोजगार के बहुत अवसर बनेंगे। विशेषकर प्लास्टिक और धातु के कचरे का प्रबंधन और प्लास्टिक का ईको फ्रैंडली विकल्प प्रदान करने में रोजगार और व्यवसाय के बहुत अवसर हैं। कचरे में लोहे और अन्य धातुओं के कचरे को अलग करके उसकी रीसाइक्लिंग करने से पर्यावरण स्वच्छ होने के साथ ही स्थानीय स्तर पर कुछ उद्योगों को धातु की आपूर्ति हो जायेगी और इस व्यवसाय से कई लोगों को आजीविका मिल जायेगी। प्रतिदिन निकलने वाले कचरे में धातुओं की मात्रा बहुत अधिक होती है। रिपेयरिंग की दुकानों से निकलने वाले अनुपयोगी ऑटो पार्ट्स से लेकर दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली वस्तुओं जैसे की शेविंग-ब्लेड और अन्य मशीनों के टुकड़ों के रूप में बहुत सी धातुएं प्रतिदिन कचरे के रूप में निकलती हैं जो पर्यावरण को प्रदूषित करती रहती हैं। कचरा बीनने वाले इनमें से कुछ को तो छाँटकर बहुत मामूली सी रकम के लिये बेच देते हैं पर तब भी बहुत सी धातु कचरे में ही रह जाती है। धातु की रीसाइक्लिंग के कार्य से इन कचरा बीनने वालों का भी भला हो सकता है। अभियांत्रिकी और प्रबंधन की शिक्षा में इन विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिये और रीसाइक्लिंग उद्योग स्थापित करने के लिये सरकार लोन भी उपलब्ध कराना चाहिये।
यहाँ पर एक और महत्वपूर्ण विषय शिक्षण सामग्री का भी है। शिक्षण संस्थानों ने यूनिफार्म और पुस्तकों को भी लाभ का व्यवसाय बनाकर रख दिया हैं। ट्यूशन फीस के आलावा महँगी ड्रेसों और किताबों को खरीदने में भी छात्रों के परिवारों का पैसा व्यर्थ जाता है। शिक्षण संस्थानों और दुकानदारों की मिलीभगत में अभिभावकों की जेबें खाली हो जाती हैं। औसत गुणवत्ता की यूनिफार्म शिक्षण संस्थाओं द्वारा बताये गये कुछ व्यवसायिओं के पास बहुत महँगे दामों में मिलती हैं। पिछले कई वर्षों से इसका विरोध भी हो रहा है पर हमारी भ्रष्ट व्यवस्था में सामान्य जनता की कोई नहीं सुनता। ऐसे ही हर वर्ष अनावश्यक रूप से सिलेबस में बदलाव करके नयी पुस्तकें निकली जाती हैं। निजी संस्थानों में पढ़ने वाले पहली क्लास के छात्र की पुस्तकें भी एक हजार रूपये से ज्यादा की आती हैं। ऐसी स्थिति में निम्न और मध्यम वर्गीय लोगों का पूरा बजट बिगड़ जाता है। इसका समाधान यही हो सकता है कि हर स्कूल और कॉलेज में एक या अधिक बड़े पुस्तकालय होने चाहिये जिनमें सिलेबस की सभी आवश्यक पुस्तकों का संग्रह हो और छात्र वहाँ स्वाध्याय करके नोट्स बना सकें। विश्व के कुछ देशों में यह व्यवस्था पहले से है। इससे अधिकांश छात्रों पर महँगी पुस्तकें क्रय करने का भार नहीं पड़ता और वही पुस्तकें कई वर्षों तक कई छात्रों के काम में आ जाती हैं। सिलेबस में जब-तब होने वाले अनावश्यक परिवर्तन भी नियंत्रित होने चाहिये।
अंततः यही कहना उचित होगा कि हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति मात्र एक मोटे लाभ का व्यवसाय बन चुकी है जिससे मात्र पढ़े-लिखे हीन भावना से ग्रसित बेरोजगार युवा तैयार हो रहे हैं। इन युवाओं में से अधिकांश में स्वयं का उद्यम स्थापित करने की कोई बुद्धि और क्षमता नहीं होती। शिक्षा का मूल उद्देश्य मनुष्यों में आत्मचेतना और आत्मविश्वास जागृत करके उन्हें जीवन के पथ पर दृढ़ विश्वास के साथ चलना सिखाना है। एक शिक्षित मनुष्य में जब इतनी योग्यता हो कि वह असफलताओं से ना डरे और समय और परिस्थिति के अनुसार सही समय पर सही निर्णय लेकर सबके हित में कार्य कर सके और अपना लक्ष्य प्राप्त कर सके, तभी उसकी शिक्षा सार्थक है। इस संबंध में यह संस्कृत श्लोक प्रमाण है - "सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात विद्या वही है जो मुक्त कर दे। यह श्लोक जितना आध्यात्मिक जीवन में सत्य है, उतना ही इस भौतिक जीवन में भी प्रासंगिक है। जो विद्या सभी भयों और चिंताओं से मुक्त करके आत्मविश्वास और प्रसंन्नता के साथ जीवन जीना सिखा दे, वही सार्थक है। मात्र शिक्षित परन्तु हीन भावना से ग्रसित निरुत्साहित युवाओं के सहारे ये देश प्रगति नहीं कर सकता और समाज में एक सीमित वर्ग की प्रगति से भी देश विकास नहीं करेगा अपितु इससे लोगों में वैमनस्य बढ़ेगा। यदि भारत को वास्तव में विश्वगुरु बनना है तो समाज के सभी वर्गों का विकास होना नितांत आवश्यक है और यह कार्य वर्तमान समय के अनुसार सही शिक्षा के माध्यम से ही संभव होगा।
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