Misguiding ads playing with people's emotions & entertainment industry
लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर भ्रमित करते विज्ञापन और मनोरंजन जगत :-
यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान समय में मनोरंजन जगत और मीडिया जनता और समाज को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। मनोरंजन जगत से जुड़े लोगों को बहुत से लोग आदर्श तक मानते हैं और उनकी बातों और कार्यों का अनुकरण करना पसंद करते हैं। मनोरंजन जगत की लोकप्रियता ने ही इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया पर विज्ञापन को एक वृहत और सफल व्यवसाय के रूप में स्थापित कर दिया है। लोकप्रिय कार्यक्रम और व्यक्ति को ही अधिक विज्ञापन मिलते हैं। कई बार तो किसी अभिनेता के लिये विज्ञापन से होने वाली आय उसके मूल कार्य से होने वाली आय से कहीं अधिक होती है। विज्ञापन करना अब मात्र व्यापार चलाने का एक अभिन्न अंग ही नहीं वरन रणनीति बन चुका है। टीवी, समाचार पत्र से लेकर सोशल मीडिया और इंटरनेट तक का उपयोग विज्ञापन के लिये हो रहा है। विज्ञापन का कार्य पिछले कुछ वर्षों में एक सफल उद्योग का रूप ले चुका है जिससे कि कई लोगों की आजीविका चलती है। लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाले कलात्मक और मनोरंजक विज्ञापन बनाना भी एक कला हो गया है। परन्तु परिवर्तित होते समय के साथ जैसे-जैसे बाजार में प्रतिस्पर्धा और पूँजीवादी धनलोभी मानसिकता बढ़ी है, वैसे-वैसे ही विज्ञापन पर होने वाला व्यय भी बढ़ा है और विज्ञापन करने के तरीके भी बदले हैं। विशेषकर टीवी पर आने वाले विज्ञापन जैसे जनता की मानसिकता से खिलवाड़ करने का एक साधन बन चुके हैं। लुभावने और मनोरंजक विज्ञापन के साथ ही भ्रमित करने वाले और आपत्तिजनक विज्ञापनों की भी टीवी पर भरमार हो गयी। इस लेख में मनोरंजन जगत के साथ ही ऐसे ही कुछ विज्ञापनों और उनके समाज पर प्रभाव पर चर्चा की गयी है।
आज भी बहुत लोगों को लगभग पन्द्रह-सोलह वर्ष पहले टीवी पर आने वाला एक टूथब्रश का विज्ञापन याद होगा जो अभी तक बने सबसे अश्लील विज्ञापनों में से एक है। इस विज्ञापन में दिखाया गया था कि जैसे-जैसे एक युवक टूथब्रश का पैक खोलता जाता है, वैसे-वैसे ही स्टोर में सामान खरीदने आयी एक युवती के वस्त्र अपने-आप फटते जाते हैं। इस विज्ञापन की कैच लाइन इतनी द्विअर्थी और अश्लील थी कि उसे यहाँ लिखना भी संभव नहीं है। बहुत विरोध के बाद इस विज्ञापन को बैन किया गया। ऐसा नहीं है कि इससे पहले ऐसे अश्लील और आपत्तिजनक विज्ञापन नहीं बने और इसके बाद ऐसे विज्ञापन बनना बंद हो गया। समय के साथ ऐसी अवधारणा बन गयी कि जो बात आपत्तिजनक होती है, उस पर अधिक लोग ध्यान देते हैं और वो जनचर्चा का विषय बन जाती है। इसलिये योजनाबद्ध रूप से अधिक प्रचार पाने के उद्देश्य से ऐसे विज्ञापन तैयार किये जाने लगे जो घोर आपत्तिजनक हों और जिन पर लोगों का ध्यान अवश्य जाये। चूंकि ऐसे विज्ञापनों पर जनता की प्रतिक्रिया आने के बाद मात्र उनके प्रदर्शन पर ही प्रतिबन्ध लगता है और विज्ञापन करवाने वाले, बनाने वाले और करने वालों पर प्रायः किसी तरह का कोई कठोर दंड नहीं लगता। अतः विवादास्पद विज्ञापनों के द्वारा अपनी कंपनी और उत्पाद के प्रचार का यह तरीका बहुत सफल रहा। दो प्रसिद्ध शीतल पेय कंपनियों द्वारा एक-दूसरे के उत्पादों, विज्ञापनों और विज्ञापनों में काम करने वाले कलाकारों तक का अपने-अपने विज्ञापनों द्वारा ही उपहास किया जाने लगा। व्यापारिक प्रतिस्पर्धा जैसे एक युद्ध बन गयी और यह युद्ध टीवी पर चल रहा था। समय के साथ इंटरनेट और सोशल मीडिया के विकास ने ऐसे विज्ञापन बनाने की प्रवृत्ति को और भी अधिक बढ़ा दिया क्योंकि टीवी और समाचार पत्रों पर प्रतिबंधित हुए विज्ञापन इंटरनेट और सोशल मीडिया पर प्रायः सदैव ही उपलब्ध रहते हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से सार्वजानिक रूप से वर्जित सामग्री का प्रयोग बहुत बढ़ गया। इसमें लाभ यह है कि सार्वजानिक रूप से वर्जित होने के बाद लोग वर्षों तक उस सामग्री को इंटरनेट के माध्यम से देखते रहते हैं और कम्पनी को मुफ्त का प्रचार मिलता रहता है। आज भी ऐसे बहुत से वर्जित टीवी एड यूट्यूब और अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर उपलब्ध हैं।
समय के साथ बात व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा से भी कहीं आगे निकल गयी। जब जनता में सामाजिक समस्याओं, राजनीति और मनुष्य जीवन के अन्य पक्षों के प्रति रूचि और जागरूकता बढ़ी तो मनोरंजन जगत और विज्ञापन भी इससे अछूते नहीं रहे। एक बिस्किट के विज्ञापन में माँ अपने दोनों बच्चों में भेदभाव ना करने की बात अपने बड़े बच्चे से कहती है क्योंकि दोनों बिस्किट एक जैसे हैं। एक टेलीकॉम कम्पनी का विज्ञापन जातिभेद मिटाने के लिए लोगों को नाम की जगह नम्बर से पहचानने का सुझाव देता है। इस तरह लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करते विज्ञापन बनने लगे। पर कुछ सीरियलों, फिल्मों और विज्ञापनों में हिन्दुओं के देवी-देवताओं और ऐतिहासिक पात्रों को अनुचित और मजाकिया रूप में दिखाया गया। विरोध करने पर इसे कलात्मकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बता दिया गया। बस इसी बात का अनुचित लाभ उठाकर फिर ऐसी और भी सामग्री बनी जिसने समाज में वैमनस्य बढ़ाने का ही कार्य किया। होली और दीपावली के त्यौहार से लेकर, अंतर धार्मिक सद्भाव और विवाह को लेकर कुछ कंपनियों ने ऐसे विज्ञापन बनाये जिन पर जनता ने जमकर आपत्ति की। यह आपत्ति संबंधित कंपनियों और उनके उत्पादों के बहिष्कार तक पहुँच गयी। कई बार तो कंपनियों को सार्वजानिक रूप से क्षमायाचना करके उन विज्ञापनों को बंद भी करना पड़ा। हालांकि बहुत सी फिल्मों, पुस्तकों, धारावाहिकों और विज्ञापनों के लिये अभिव्यक्ति और कलात्मकता की स्वतंत्रता के नाम पर ऐसा नहीं हो सका। अतः ऐसी घटनाओं से समाज में यह धारणा बनने लगी कि धर्मनिरपेक्षता का अभिप्राय मात्र हिन्दुओं, उनकी जीवनशैली और उनकी धार्मिक मान्यताओं के विरोध और उपहास तक सीमित हो गया है। पर बात मात्र धर्म और राजनीति तक सीमित नहीं रह गयी। अभी कुछ माह पूर्व एक खाद्य तेल कम्पनी अपने विज्ञापन में दिखा रही थी कि जब पति अपनी माँ को अपने साथ रख सकता है तो पत्नी को भी अपनी माँ को पति के घर में ही उनके साथ रखना चाहिये। इस विज्ञापन पर सामान्यजन के साथ ही सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी आपत्ति हुई। परन्तु यहाँ भी नारीवादियों और सामाजिक समानता की बात करने वालों में इस विज्ञापन पर विवाद छिड़ गया। जहाँ नारीवादियों को यह विज्ञापन उचित लगा वहीं उनका विरोध करने वालों ने इस विज्ञापन को अनुचित और परिवार तोड़ने वाला बताया। वर्तमान समय में पत्नी और ससुराल वालों की प्रताड़ना से त्रस्त होकर आत्महत्या करने वाले पुरूषों की संख्या हजारों में है और ये सभी मानते हैं कि स्त्रियों के हितों की रक्षा के लिये बनाये गये कानूनों का दुरूपयोग हो रहा है। फिर आज की महँगाई भरे इस समय में एक पुरुष अपनी आय से किस-किसका भरण-पोषण कर सकता है? निम्न और मध्य वर्ग का बजट तो कोरोना से होने वाले बंद से भी धराशायी हो जाता है। पर बात यहाँ धन से अधिक पारिवारिक जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप और वैमनस्य की है। ससुराल में रहने वाले पुरुष को तो घर-जमाई का ताना देकर समाज लांछित करता है। फिर लड़की के घर में लड़के के उसके माता-पिता को साथ में रखने की बात तो भूल ही जाईये। सोचिये यदि कोई कम्पनी भूल से भी इस तरह का विज्ञापन दिखा देती तो सारे नारीवादी और समाज सुधारक आसमान सर पर उठा लेते। लड़के और उसके परिवार को निकम्मा, लालची और पता नहीं क्या-क्या कहा जाता, भले ही ये मात्र विज्ञापन में होता। साथ ही कंपनी और कलाकारों की भी अपरिमित भर्तस्ना होती।
मनोरंजन जगत तो अपने आरंभ से ही कभी सामाजिक समस्याओं से अछूता रहा ही नहीं है। परन्तु यहाँ प्रश्न यह उठता है कि कंपनियों को धर्म, राजनितिक विचारधारा, समाजिक सद्भाव और पारिवारिक जीवन जैसे अतिसंवेदनशील मुद्दों पर अपने उत्पादों के विज्ञापन बनाने की क्या आवश्यकता पड़ गयी? इसके लिये मुख्य रूप से देश में चल रही राजनीति के साथ ही बढ़ता बाजारवाद, पूंजीवाद और इन सबका गठजोड़ भी उत्तरदायी है। दशकों पूर्व रामचरितमानस की एक पंक्ति "समरथ को नहीं दोष गुसाईं" का गलत अर्थ निकाल लिया गया और इसे ही भृष्टाचार का आधार बना लिया गया। यह चौपाई शिव-पार्वती विवाह के प्रसंग में बालकाण्ड में भगवान शिव के लिये कही गयी थी। इसी चौपाई के बाद की चौपाइयों में स्पष्ट कहा गया था कि मनुष्य कभी पूर्ण समर्थ नहीं होता और उसे ईश्वर से अपनी तुलना नहीं करनी चाहिये। पर लोगों ने इसके विपरीत ही किया। धनबल, बाहुबल, संख्याबल और सत्ता सामर्थ्य का पर्याय बन गये। समाज का एक विशेष वर्ग जिसमें बड़े पूंजीपति, राजनीतिज्ञ, पुलिस, अभिनेता, बड़े सरकारी अधिकारी और मीडिया के लोग शामिल हैं, सब कानूनों से ऊपर हो गये। सन १९४७ में हुए देश के विभाजन के बाद से अब तक की घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि भृष्ट व्यवस्था में ऊपर बैठे बड़े लोगों पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती चाहे उनका अपराध कितना ही बड़ा क्यों ना हो। सारे नियम और कानून मात्र सामान्य नागरिकों के लिए ही बने हैं। बस यही मानसिकता और भ्रष्टाचार जनता की भावनाओं का उपहास करके लोगों की सोच और व्यवहार को जानने और उसे नियंत्रित करने के उद्देश्य के मूल में है। व्यवस्था को नियंत्रित करने की सोच रखने वाले तत्व हमेशा यह जानना चाहते हैं कि सामान्य जनता के मन में क्या चल रहा है। वैसे यह नीति अनादिकाल से शाषन करने की नीति का अभिन्न भाग है कि जनता के से बिना पूछे भी उसके मन की बात जानी जाये और लोगों की समस्याओं को समझकर उनका समाधान किया जाये, ताकि राज्य में अव्यवस्था और शाषन के प्रति असंतोष और विद्रोह की स्थिति नहीं बने। पुराने समय में इसके लिये गुप्तचर रखे जाते थे जो वेष बदलकर राजभवन से लेकर नगर, ग्राम, द्यूतशाला(जुआ खेलने का स्थान), मदिरालय, चौपाल, हाट-मंडी(बाजार), मंदिर, धर्मशाला, आश्रम, विश्राम गृह, मेला-स्थल, सभा-स्थल और सार्वजानिक उपयोग के हर उस स्थान पर आते-जाते थे जहाँ लोग एकत्रित होकर वार्तालाप करते हों। कभी-कभार तो स्वयं राजा तक वेश बदलकर प्रजा का हाल जानने निकलते थे कि कहीं गुप्तचर और मंत्री गलत जानकारी ना दे रहे हों। इन सब कार्यों के उद्देश्य में प्रजा का हित, सुचारु कानून-व्यवस्था और राज्य की शत्रुओं से सुरक्षा ही निहित मंतव्य होते थे।
समय बदलने के साथ उपर्युक्त सभी कार्यों के स्वरूप भी बदल गये और उद्देश्य भी। अब समाज और सत्ता पर अपना वर्चस्व चाहने वाले लोगों का एकमात्र उद्देश्य रहता है किसी भी तरह से जनता के मन की बात जानकर अपना हित साध लिया जाये। यहाँ तक कि बात अब जनता के मन की बात जानने से कहीं आगे बढ़कर जनता की सोच को नियंत्रित करने तक पहुँच चुकी है और इसके लिये सामान्य मनुष्य के जीवन से सम्बंधित हर छोटे-बड़े पक्ष पर व्यापक रणनीति के अनुसार कार्य किया जा रहा है, फिर चाहे वो धर्म हो या मनोरंजन और चाहे राजनीतिक विचारधारा हो या दैनिक जीवन में उपयोग आने वाली सामान्य वस्तुएं। आपत्तिजनक विज्ञापन और मनोरंजन सामग्री भी इसी योजना का एक भाग हैं। ऐसे विज्ञापन, सीरियल और फिल्म बनाने का एक उद्देश्य तो ऐसी विषयवस्तु पर जनता की प्रतिक्रिया जानना और समझना होता है। जनता के मन की बात को समझकर राजनितिक दल समयानुसार चुनावों के लिये अपनी रणनीति तय करते हैं। इस पर पूरा ध्यान दिया जाता है कि विरोध करने वाले कौन हैं और उनकी बातों का समर्थन कितने लोग करते हैं। उसके अनुसार ही विरोधियों को अपने पक्ष में करने या उनके प्रयास को असफल करने की योजना बनाई जाती है। दूसरा उद्देश्य धीरे-धीरे ऐसी आपत्तिजनक बातों का सामान्यीकरण करना होता है जिससे की विरोध करने वालों को यह दर्शाया जा सके कि वो गलत हैं और ऐसी बातें अब सामान्य जनजीवन का हिस्सा बन गयी हैं। यहीं पर जनता की सोच को नियंत्रित करने का प्रयास योजनाबद्ध और अप्रत्यक्ष रूप से कार्यरत रहता है। बात मनोरंजन जगत की करें तो टीवी पर चल रहे एक लोकप्रिय कॉमेडी सीरियल में दो पड़ोसी एक-दूसरे की पत्नियों को मन ही मन प्रेम करते हैं। हालांकि इस सीरियल में अश्लील दृश्य और विवाहेत्तर संबंध नहीं दिखाये गये हैं, पर इसमें कई बार ऐसे संवाद और दृश्य आते हैं जो कि परिवार के साथ देखने और सुनने के योग्य नहीं होते हैं। इसमें कथानक और संवादों के माध्यम से धीमी अश्लीलता परोसी गयी है। इसमें एक मुख्य किरदार को अप्रत्यक्ष रूप से एक पंडित के अनैतिक पुत्र के रूप में दिखाया जाता है। ऐसा लगता है कि यह सीरियल सभी पुरुषों को लंपट दिखा कर दर्शकों से इस सामाजिक बुराई को पुरुषों के सामान्य स्वभाव के रूप में स्वीकार करने को कह रहा हो। इसी प्रकार लगभग सभी जाने-माने कॉमेडी शो में कई बार इसी प्रकार के अश्लील संवाद महिलाओं और बच्चों की उपस्थिति में कहे जाते हैं। टीवी पर चलने वाली एक गायन प्रतियोगिता में एक प्रतिभागी बच्चे के साथ भी अंतर्वस्त्रों के संबंध में ऐसा ही अभद्र वार्तालाप किया गया था और सब लोग ठहाके लगा रहे थे। फिल्मों में तो ऐसी आपत्तिजनक बातें इतनी होती हैं कि किसी लेख में नहीं लिखी जा सकतीं। यह सब एक सुनियोजित प्रयास है उन बातों और व्यवहार को सामान्य जीवन का हिस्सा बनाने का जिन्हें सभ्य समाज में सार्वजानिक रूप में अनुचित, अस्वीकार्य और समाज के लिये दीर्घकाल में अतिविनाशकारी माना जाता है। देश के महत्वपूर्ण समाजसुधारकों और शोषितों के अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले सम्माननीय नायकों पर टीवी पर चल रहे कार्यक्रमों में कथानक को रोचक बनाने के लिये कई बार ऐसी काल्पनिक घटनाओं को दिखाया जाता है जो कि कई लोगों का मानना है कि उन लोगों के जीवनकाल में कभी हुई ही नहीं और उनका कहीं उल्लेख भी नहीं है। इस तरह के विज्ञापनों, फिल्मों और धारावाहिकों पर कई बुद्धिजीवियों का मानना है इस प्रकार से कलात्मकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर गलत तथ्यों को दिखाये जाने से समाज के विभिन्न वर्गों में एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य हो सकता है।
यह सब जानते और समझते हुए भी कि ऐसी कलात्मकता से समाज में विद्वेष, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगेंगे, इतनी निर्लज्जता से ऐसी सामग्री तैयार कर उसे सार्वजानिक किया जाता है जैसे कि उससे व्यथित होने वालों और विरोध करने वालों का अस्तित्व ही नहीं है। पर वास्तव में यह अनदेखा और अनसुना करने का दिखावा जनता को मानसिक रूप से और अधिक प्रताड़ित करने के लिये किया जाता है। पुरानी नीति है कि एक संतापग्रस्त योद्धा कभी पूर्ण मन से युद्ध नहीं कर सकता और उसकी पराजय की संभावना अधिक होती है। इसी संताप से बचाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। पर जैसा पहले कहा जा चुका है कि सत्ता और समाज पर नियंत्रण चाहने वाले तत्त्व जनता की सोच और व्यवहार को भी नियंत्रित ही रखना चाहते हैं। जनता की स्वतंत्र सोच से उन्हें भय लगता है। किसी को भी समस्या और संताप से ग्रस्त रखना इस भय से बचने का सबसे सुगम उपाय है। इसलिये ये वर्ग विशेष समस्याओं का समाधान करने की जगह समस्याओं को बनाये रखने और बढ़ाने में विश्वास करते हैं। समस्याएं तो उनके लिये बहुमूल्य रत्नों की खदान होती हैं जिनका अपने हित के लिये पाताल की गहराई तक दोहन किया जा सकता है। यदि समस्याओं का समाधान हो गया तो फिर उनसे होने वाला लाभ भी समाप्त हो जायेगा। इसलिये कई बार रणनीति के तहत वहाँ भी समस्याएं उत्पन्न कर दी जाती हैं जहाँ वास्तव में कोई समस्या हो ही नहीं। यही बात वर्तमान राजनीति और व्यापर जगत के मूलमंत्र में है। जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं से भटकाकर उसे अपने द्वारा प्रायोजित समस्याओं पर केंद्रित करना भी इसी रणनीति का एक अन्य और अधिक व्यापक रूप है। सत्य को नकारना, भय को भ्रम बताना, भ्रम को सत्य बताना, वास्तविक भय पर ध्यान ना देना, आपत्तियों का उपहास करना और किसी असत्य को तब तक दोहराते रहना जब तक कि लोग उसे सत्य ना मानने लगें जैसे कूटनीतिक उपायों का कुशल उपयोग इसी रणनीति का विस्तार है जो समय के साथ सामान्य जनजीवन तक में प्रयोग होने लगा है। कड़ा परिश्रम करके धन कमाने वाले सत्यनिष्ठ सभ्य समाज से धन का दोहन करना और उनके जीवन को इतना कठिन और दुःखी बना देना कि वो भृष्टाचार का प्रतिकार करके देश और समाज के लिये कुछ भला करने के लिये समय भी ना निकाल सकें जैसी सूक्ष्म और व्यापक प्रभाव वाली कुनीति के प्रभाव से जनता आज भी ग्रस्त है। फूट डालो और राज करो की कुनीति का रूप अब पहले से बहुत अधिक विकृत हो चुका है। अब बात जाति-धर्म और क्षेत्र से कहीं आगे बढ़कर भाषा, संस्कृति, पहनावा, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, जीवनशैली, स्त्रीवाद-पुरुषवाद, पति-पत्नी और अन्य पारिवारिक संबंधों तक पहुँच गयी है। संयुक्त परिवारों में बिखराव तो पुरानी बात हो गयी। अब तो महज पति-पत्नी और दो बच्चों वाले परिवारों में भी बिखराव हो रहा है।
अब स्थिति यह है कि चाहे मनोरंजन जगत हो या विज्ञापन, फिल्म हों या सीरियल, पुस्तकें हों या सोशल मीडिया, पूरी योजना के साथ आधुनिकता के नाम पर ऐसी सामग्री तैयार करके प्रसारित की जाती है जो लोगों का तात्कालिक मनोरंजन तो करती है पर अंततः धीरे-धीरे लोगों को भ्रमित और व्यथित ही करती है। ऐसी सामग्री के दीर्घकालीन दुष्प्रभाव बहुत ही सूक्ष्म और व्यापक हैं। बहुत से बुद्धिजीवी समाज में बढ़ते अपराधों और कुप्रथाओं, टूटते परिवारों, आपसी संबंधों में वैमनस्य, घटती संवेदनशीलता और निजी जीवन में एक-दूसरे के प्रति घटते विश्वास और बढ़ते अवसाद के लिये मनोरंजन के नाम पर प्रस्तुत की जा रही सामग्री को भी बहुत अधिक दोषी मानते हैं। ये मानव स्वभाव की एक सामान्य विशेषता है कि वह जो देखता, सुनता और पढ़ता है, उसका मनुष्य के मन पर कुछ प्रभाव तो अवश्य पड़ता है। कभी-कभार ये प्रभाव बहुत व्यापक भी होते हैं क्योंकि इस संसार में प्रत्येक जीवित प्राणी देख-सुनकर ही सब सीखता है। कदाचित इसीलिये प्रकृति ने प्रत्येक जीव को उसकी परिस्थितियों से संघर्ष कर विकसित होने के लिये बुद्धि और विवेक भी दिया है। मनुष्य की विशिष्ट शारीरिक संरचना के अतिरिक्त शेष प्राणियों से कहीं अधिक बुद्धि और विवेक ही उसे इस गृह पर सबका शाषक बना देती है। पर अब शाषक बने रहने की लालसा रखने वाले ही यह नहीं चाहते कि उनके अतिरिक्त शेष जनता कभी अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग भी करे। वो यही चाहते हैं कि लोग उसी को सत्य मानें जो वो बताते हैं और वैसे ही रहें जैसे वो रखना चाहते हैं। वैसे भी एक पुरानी कहावत है कि जब तक मूर्ख जीवित हैं तब तक धूर्त भी नहीं मर सकते। इसीलिये लोगों को एटीट्यूड के नाम पर अहंकारी होना सिखाया जा रहा है। ये सनातन सत्य है कि अहंकारी प्राणी अपनी बुद्धि का प्रयोग कर अपना और दूसरों का हित-अनहित नहीं समझना चाहता और विनाश को प्राप्त होता है। विभिन्न माध्यमों से समाज में धीरे-धीरे पर सतत रूप से ऐसी कुप्रवृत्तियों को को फैलाकर उन्हें लोगों के व्यवहार में इतनी चतुराई सम्मिलित कर दिया जाता है कि स्वयं लोगों को पता नहीं चलता कि वो कब उनकी आदत बन गयीं। मनोरंजन जगत उन माध्यमों में सबसे सशक्त है क्योंकि मनोरंजन के बिना जीवन नीरस है। शरीर और मन से थका हुआ मनुष्य सदैव ज्ञान का उपदेश ही नहीं अपितु उपयुक्त मनोरंजन भी चाहता है। मानवीय स्वभाव का यह शाश्वत सत्य जनता के मन पर मनोरंजन जगत का व्यापक प्रभाव समझाने के लिये पर्याप्त है। अब यह सामान्य जनता को निर्धारित करना है कि कैसे उन्हें अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग करके दृश्य और श्रव्य माध्यमों से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के कुप्रभावों से बचना है और कैसे इनका नियमन करना है या फिर हर समस्या की तरह इसे भी भगवान भरोसे टालना है। जय हो जनता जनार्दन की।
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